प्रकट पायस , तृषित
दक्षिण भारत का अनुभव है कि श्री को खीर का भोग लगता है । यह क्षीरान्न (पायस) भोग स्वतः श्री कृपा प्रकट भोग है । क्षीरिका अति गाढ़ माधुर्य से गौधन का अधरामृत पान करने पर पिया हुआ क्षीर है । गौ जब गोपी वृति भावित होती है तब वह सामर्थ्य रखती है श्रीकृष्ण-अधर मधुरता के पोषण का । श्रीकृष्ण जब बछड़ा होते है तब वह दर्शन करती है प्रीति नयनों से श्रीगोपीनाथ ,श्रीगोविन्द, श्रीमदनमोहन की मधुर लीलात्म मधुरताओं का । गोविन्द पायस अभिसिक्त वपु है । सहज गौरस वहाँ झरित होता है जहाँ वह छिपे हो ।
शायद ही कोई माने कि खीर बनानी नहीं पड़ती थी वह प्रकट प्रसाद है , विशुद्ध रस यज्ञ का विशुद्ध भोग हविष्य प्रसाद । जब रस गहन होता है वह पय से पायस होता जाता है । जब गौ जठराग्नि में औषधीय मधुर रसिली आहुतियाँ लग रही हो तब अक्षय मधुता पायस कही जा सकती है । वात्सल्य सुधा गौ में सामर्थ्य है कि वह रसमय आहार को लेकर भी उसके रस तत्व को दे सकें और पुष्टि-तुष्टि और श्री देकर । श्रीदेवी भूदेवी से संयोजित होकर ही हो सकती है पायस सेवा वरण वह गौ झरित गोवर्धन वपु धारी गिरधर के अधर माधुर्य का भोग लिये प्रकट नहीं हो सकती । दिव्यतम शक्तियां सहज सँग सेवित होती है तब ही विशुद्ध भोग प्रकट होता है । विशुद्ध भोग सेवक ही रस सेवक हो सकता है । वह विशुद्ध भोग अब केवल शास्त्र में प्रकट उपचार है । वायु जब स्वयं चुन कर अष्ट दिव्य गन्ध से सेवा करती हो वह गन्ध मधुता अब साधन से ही सिद्ध हो सकती है । सेवा तत्वतः नित्य है , बस उनकी चोरी हुई है और सेवा भावित को अनुभव होना चाहिये वह सेवाओं को चुरा कर ही दे रहा है , क्या गौरस मिलें बिना खीर बनाकर भोग लगाया जा सकता है ???
वह गौ स्वयं ही क्षीरिका (खीर) का भोग लगा सकती है गौरस शेष श्री रूपी गोवर्द्धन रस को भीतर ही भरकर , श्रीकृष्ण प्रेम भरित गौ श्रीकृष्ण भावित होकर अप्राकृत सेवा रचती है और श्री तत्व सीधे श्रीकृष्ण आहार हो पाता है जो कि गौ के शेष निर्माल्य में भावित स्थिति भर रजोगुणात्मक शक्ति है ।
श्री रसिक प्रियतम को भोग निवेदित तत्व को प्रसाद वत नित्य जीवन में पीने वाले रससेविकों को और क्या आवश्कयता है शेष प्रेमास्पद हृदय सुगन्धों की मधुरताओं को श्रृंगार देने के अतिरिक्त । उस प्रसाद का स्वाद , विशुद्ध भोग है क्योंकि उसमें वह तत्व-तत्व अपना प्राण लगा कर आहूत हुआ है रस भोगी का ही केवल भोग होने को । किसी भी तत्व से रस लेना हो तो उसे रसिक लाल को निवेदित कर पाने पर ही मिल सकता है क्योंकि विशुद्ध भोगी ही विशुद्ध भोग को चखा सकते है निज अधर प्रसाद देने की करुणा से । प्रसाद सहज प्रकट रस है , रस सेवा को रस भोग निवेदित होने पर सहज सुलभ । पद्म नयन माधुरी स्पर्श से ही किसी पंक से पंकज मधुता स्फुरित होती है । प्रसाद वह पंकज है जो पंक नहीं रहा सो पायस गौ पंक भरित गौरस सेवा है सहज प्रकट । शायद अब भी आप ना माने कि खीर बनती नही है , प्रकट होती है गोप्य जठराग्नि में ।
जब गोवर्धन रस अंकुरित समूह स्वयं पक रहे हो श्रीकृष्ण माधुरी होकर गौ हिय रस में ।
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