सिद्धान्त और निकुँज स्पर्श , तृषित
निकुँज रस अनुभव हेतु सिद्धान्त क्षेत्र पर स्वयं को भी सतर्कता से चलना होगा ।
सरस् मधुर स्थितियां ही प्रकट निकुँज विलास में उत्सवित हो सकती है ।
सरसता मधुरता के निकट होने के प्रयास रह्वे तब वह स्वयं निकट होती है ।
मधुर रस और श्रृंगार रस में ही जीवन का सार सुख मिलने की लोलुप्ति होने पर अन्य से चुभन - कटुता - वैमनस्य आदि मिटने लगेंगे । यह नहीं मिटेंगे तो निकुँज नहीं प्रकट होगा । जो केवल प्रेम दे सकें वही इस मधुता को छूते है । रसिक - सन्त सर्व के प्रति करुण सरस और अपनत्व से भरे होते है कारण यह ही है कि सहज होकर ही सहजता का सहचर हुआ जा सकता है । सेवा के तृषित होना होगा सेवक होने हेतु ।
जब हमारे द्वारा निकुँज रस चर्चा निवेदित हो और सन्मुख स्थिति में सिद्धांत क्षेत्र का अभाव हो तब वह चर्चा सिद्धांत के निकट होने लगती है क्योंकि जैसे बालक अति गर्म रस नहीं पी सकते जबकि अभ्यास से पिया जा सकता है वैसे ही जिनका मधुता-शीतल रस का चिंतन नहीं वह गहन अति गहन मधुता-शीतलता आदि का सँग नहीं कर सकते थोड़ा मिश्रण कर निवेदन करनी होती । जबकि श्रीजी की स्मृति भर से हिय शीतल सुरँग शहद में भीगने लगता है , फिर चर्चा से तो वह वर्षण होना चाहिये । सर्व सामान्य में आदर रहें । अपनी तनिक भी बड़ाई न मिले तो कटुता और वैमनस्यता नही होगी । जिसके हिय की भीतरी दीवारें अपने प्यारे के सँग की वेदना और अपने पथ में नित्य अभाव से पिघल कर ढह रही हो वह कैसे किसी के प्रति पाषाण होगा । अधिकतम सँग अपने पथ आचार्य -सन्त-रसिक चरण का हो । उससे दीवार को झुकना आएगा वह तरल हो जावें इतना झुके रहना होगा । प्रयास रह्वे प्रति सँग भगवदीय या गुरुवत दर्शन हो । लघुता कहीं दिखे तो अपनी ही दिखें इससे कटुता पिघलेगी । हमारी रस सम्पति को हमने ही खोया है कठोर होकर । हमें ही रस में रस होकर रसनिधि को समेटना होगा भीतर ।
सँग में नियुक्त सेवकों के प्रति भी हृदय में गुप्त या प्रकट आदर रहे ही रहे ।
बहुतायत मैंने देखा है कि सेवकों पर भार ही बढाया जाता है उनकी सेवा के प्रति अपना हृदय संकीर्ण रखने से सम्बन्ध में केवल आते-जाते कागज हाथ लगते है । जैसे किसी सेवक का काज है बर्तन साफ करना और उससे इससे पृथक सेवा ली जावें तो प्रयास तो हो ही कि उन्हें कुछ भरपाई दी जा सकें । मैंने अतिसेवा होने पर यह मानसिक भी किया तो उनकी कुछ सेवा कहीं न कहीं से हुई ही । प्रयास कीजिये गीले ही नहीं गले हुए कागज सा कलेजा रखने का । श्रीयुगल तो शीतल ललित मधुर गीले शहद है , फूल है वें सो फूल का सँग तो फूल होकर ही होगा । उदार श्रृंगार रस सरोवरे श्रीकिशोरी के सँगी को तनिक उदार होना चाहिये । सेवा ना मिलने के बहाने बनाने से , श्रीहरि सँग नहीं बनता । सेवा तो नित्य सँग होती है सेवक होकर अनुभव रखना आवें । सेवक या दास जो नित्य है ...वह सत्य में भीगा हुआ है , दास को दूसरे दास से सावधान रहना चाहिये क्योंकि दास तो वहीं ही है और सन्मुख तो स्वामी ही है ...श्रीप्रियालाल और उनकी निजतम सखियों की हम दासी ...केवल दासी ... श्रीहरिदासी । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी
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