स्थूल पदार्थ से भोग होना , तृषित

*स्थूल पदार्थ से भोग होना*

जिस भाँति चक्की (दो पाटों के मध्य)के भीतर अनाज डालने पर वह उनके घर्षण से कठोर ध्वनि करती है और अनाज का चूर्ण हो जाने पर वह कठोर ध्वनि धीरे-धीरे कठोरता कम करती है वैसे ही जब सरस् भावित कुँजों में सभी आह्लादित सरस् लोलुप्त सेवातुर वृत्ति रहेगी तब ही कोमल चूर्ण होकर कोमलता के अनुभव होगें ।
चूर्ण ही होना है तो चन्दन आदि अंगराग परिमल द्रव्यों का ही क्यों नहीं हुआ जावें । चन्दन को जितना कठोर पाटे पर घीसा जाता है और जितनी कोमलता से तनिक जल का छींटा देते हुए वह उतना ही मुलायम (कोमल) बनता है । निज प्राण सरकार के कोमलत्व का मधुर चिंतन करते हुए की गई सेवाएँ मधुर कोमल होती जाती है । जैसा कि पूर्व में निवेदन किया गया कि सिद्धांत सिद्ध हो रस पथिक का और प्रत्येक पथिक के लिये वह भिन्न हो सकता है जैसे कृपण को उदार होना होगा , कठोर को विनम्र , आदि । सभी में जो स्थिर कठोर भाव है वह विपरीत मधुरता से निहारने पर कोमल स्वभाव हो सकते है । जैसा कि निवेदन है कि स्वभाव वह तत्व है जो छुटाए नहीं छूट पाता और सेवार्थ ही वह उभय होता है । अनाज अपने स्थूल आकृति सँग ग्राह्य नही है वह अपने स्वभाव के लिये यात्रा को स्वीकार करता है और ऐसे ही शेष सभी तत्व भी । रावण को राम की यात्रा करनी होगी , चूंकि वह प्रबल रावण तत्व भरित स्थिति है तो राम ही यात्रा कर उसके कल्याण तक आते है , कहने का तात्पर्य प्रत्येक तत्व पूरक तत्व की खोज में है जबकि वास्तविकता पर पूरक सिन्धु तत्व ही बिन्दु तत्व के निकट आ रहा है । 
दीर्घ काल से सँग होने पर भी निवेदित श्रवणीय भाव और लिखित भावनाओं को ना छूकर कुछ सँग ऐसे भी बने हुए है जो सँग रहकर कुछ हमारे अपराध तलाश रहे होते है , जब हमारे अपराधों की सूचना के लिये श्रीहरि को बाह्य स्वरूप लेना होता है तो यह भी पीड़ा भरी स्थिति ही है क्योंकि स्वयं को शुद्ध निर्मल पवित्र रखना हमारा कर्तव्य है , कब तक अन्य को दुर्गन्ध आने पर ही स्नान होगा । जिस भाँति चक्की और उसके चालक जानते है कि अनाज महीन चूर्ण हुआ या नहीं वैसे ही दास और श्रीहरि सँग आई सुपाच्य श्रीहरि की भोग सामग्री मान संगियों के प्रति क्रियात्मक हो सकते है क्योंकि चक्की चाहती है कि अनाज के सभी कण भोग हेतु आटा (चूर्ण) बने । जब अपने प्राणप्रियतम को नाना भाँति के भावरसों का भोग लगता है वह सुख कहते नहीं बन सकता । सभी सनातन प्राणियों में औषधीय मधुता है , श्रीहरि को नव-नव रीति-प्रीति से पोषण देने के लिये नव-नव भाव सुगंधें भीतर है सभी में । परन्तु तनिक द्रवित अर्थात पिघलकर पकने के लिये उत्सवित हो चेतना , श्रीयुगल सहज भोगी है अर्थात सहजता से जो भोगार्थ पक जावे ऐसे रसफल के भोगी (कुछ पक्षी यहाँ भी केवल फलाहारी होते है) परन्तु भावार्थ जीव पका सकता है अन्न की कठोरता को कोमल कर सुपाच्य पोषण भरित हलुआ । वैसे ही हमें स्थूलता से श्रीप्रियाप्रियतम की श्रृंगार यात्राओं तक दौड़ना है । कब तक हम पिघलने से बचते रहेगें , भोग में किसी मिश्रण के तनिक भी न्यूनता होने पर युगल मधुरार्थ कूटने की आवश्यकता रहती है , और इस आवश्यकता से गुरू शिष्य रूपी स्थिति प्रकट होती है । गुरू पथ के सिद्धांत को निवेदित कर सकते है , निज हिय की मधुरता को जस का तस शिष्य को निवेदन करने हेतु कुछ शिष्य को उठना होगा और कुछ गुरुत्व झुकेगा । सहचर (सख्य) को हिय मधुता कही जा सकती है पर निज पितृ वत गुरू स्थिति और निजशिशु वत शिष्य स्थिति में वह सहचर-सहचरी सँग कहीं बातें नहीं आ पाती । सौभाग्य से हमारी रस-रीति परम्परा में हम केवल श्यामाश्याम की सखी है और सन्मुख उनकी सखी चाहने को तृषित । दो सखियों में निजता बिन कहें भी समान भरी होती है यह लोक के विलास में भी दृश्य स्थिति है । हमें चक्की या चन्दन का पाटा होकर कतई सुख नहीं है , हमें तो उबल उबल कर ऐसा पकना है जो उनके लिये भोग्य रस हो सकें । तृषित । हम रसभोगी युगल के रसभोग रह्वे । बलिहार रस रीती । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

कुछ न होते बने तो सिगड़ी (अँगीठी) का सँग कर खिंचडी हो जाओ उनके भीतर उतरने वाली ।

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