स्वधर्म की निजता भाग 2 , तृषित

स्वधर्म की निजता भाग 2

धर्म मुक्ति असम्भव है । हाँ स्वभाव उपलब्धि धर्म का मूल स्वरूप है परंतु स्वभाव उपलब्धि प्राकृत और अप्राकृत भिन्न स्वभाव है । वायु से जल की उत्पति होने पर भी जल और वायु स्वभाविक भिन्न है । जल की आवश्यकता पर वायु से पूर्ति नहीँ होती ।
अतः निज स्वभाव जब अन्यत्र अनछुई वस्तु है तो उसे प्राप्त किया ही नहीं जा सकता । स्वभाव प्राप्ति की व्याकुलता ही अग्नि को प्रकाश बना निज वस्तु का श्रृंगार करती है भगवत कृपा से ।
बहुत से धार्मिक संगठन यह सिद्ध करना चाहते है कि धर्म कोई संगठन है । यह धर्म के स्वरूप के प्रति उनकी उदासीनता ही है । धर्म त्याग भी नव सीढ़ी पर ही तो ले जाता है तब वह सीढ़ी धर्म होती है । कृष्ण शब्द में कृष भू वाचक है कैसी भूमि भाव की "ण" आनन्द है  .... भाव की धरती पर ही यह कृष्ण रूपी आनंद प्रकट है तब भाव ही श्रीकृष्ण का धर्म हुआ । जीव का भाव नहीं ... श्रीकृष्ण निज भाव पर प्रकट आनन्द है ।
जीव की भावना की सिद्धि का नाम प्रपन्च है । जो जैसे जिस भाव से भजता है वह वैसे हो जाते है यह सूत्र ही उनका स्वभाव त्याग जीव भाव से जीव भाव की सिद्धि करना है । श्रीहरि की स्वभाव उपलब्धि अवस्था ही श्रीकृष्ण है । जहाँ उनके निज भाव का पोषण हो रहा है , क्योंकि उनके भावराज्य का प्रति अणु चेतन रूप कृष्ण सुख का ही हेतु और धर्म धारण करें है
इसी सम्पूर्ण कृष्णसुख रूपी धर्म की सम्पूर्ण साकार श्रीविग्रहा श्रीराधा है । सम्पूर्ण श्रीकृष्णविलास सुख उनका निज स्व धर्म है ... स्वभाव है । सम्पूर्ण श्रीकृष्णसुख की सिद्धि में सम्पूर्ण निज सुख से उपाधि की वह ऐसी अवस्था है कि इस धरा का अणु मात्र अनुभव कृष्णसुखेच्छा से लोलुप्त चित्त को हो सकता है । परन्तु श्रीकृष्णसुखेच्छा की लोलुप्ता पर प्राप्त स्वभाव स्थिति सर्वदा नविन होगी ।
लोक अथवा दिव्य लोक पृथकता की आवश्यकता नवीनता हेतु है । जीव की निज मातृ शक्तियों से भी पृथक स्थिति है जिसकी सिद्धि पर ही जीव स्वभाव को प्राप्त कर सकता है ।
विचार कीजिये लीला में सभी पात्र आवश्यक है , श्रीरामलीला में अगर वैकुण्ठ से गिरे यह पार्षद इतनी तपस्या से अपना स्वभाव स्वीकार कर जय-विजय रूप अपने स्वभाव को दृष्टव्य कर पाते तो कैसे लीला का विकास होता । जहाँ समस्त वानर श्रीराम के अनुगत भाव सिद्धि में है । वहीँ रावण जो कि स्वभाव से है वैकुण्ठ पार्षद परन्तु विस्मृति से है राम के विरोध की स्थिति में । और यही स्थिति तत्क्षण उसका धर्म भी है , श्री भगवती सीता अनुकम्पा कर स्वभाव लालसा जाग्रत कर रावण आदि को उनका श्रीहरि से अभिन्न स्वरूप दर्शन करा दे तो लीला होगी कैसे ??
लीला विकास को ही विस्मृति है , यहाँ एक बात और श्रीराम की विपक्ष की स्थिति तक जब दिव्य धाम में उनके नित्य पार्षद है तब शेष सभी पात्र क्या दिव्य धाम से बाहर के हो सकते है ।
नाट्य शास्त्र की निपुणता ही जगत का विलास है ।
और निज कला का विकास ही भाव राज्य का विलास है ।
श्री सर्व कलानिधि श्रीश्यामसुन्दर की सर्व कला लालसा ही कामकला का स्वरूप है । और श्री हरि की सर्वकलामय स्थिति श्रीराधा से अभिन्न स्थिति युगल स्वरूप है । श्री राधा ही षोडशा से सम्बोधित है । चन्द्र की सोलहवीं कला की परिपूर्ण अवस्था वही है । श्री कृष्ण इस कला में ही प्रवेश को निज प्रकाश त्याग माधुर्य पथिक हो अमावस्या से पूर्णिमा पर्यंत समस्त आलोकता श्रीप्रिया की ग्रहण कर प्रकट और उत्तरोत्तर माधुर्यमय होते जाते है ।तृषित।। जयजयश्रीश्यामाश्याम ।।

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