स्वरूचि , पसन्द से दूरी होती है । समीपता नहीँ , तृषित

स्वरूचि , पसन्द , यह ईश्वर के समीप नहीँ लें जाता अपितु दूर करता है ।
इससे नित्य कृपा की अपेक्षा अपनी ही चाह पूर्ति की भावना रहती है ।
पसन्द है तब नापसन्द भी होगा , और पसन्द का घेरा छोटा नापसन्द का विस्तृत होगा । तब कृपा वहीँ लगेगी जो अपनी चाह अनुकूल हुई । अपनी रूचि , चाह से बाहर होती कृपा की भी उपेक्षा तब होने लगती है ।
कृपा के दर्शन के लिये अपनी पसन्द नामक वस्तु हटा लेनी चाहिये ।
जिससे माँग नहीँ प्रसाद का अनुभव हो और प्रसाद पसन्द आदि से सम्बन्ध नहीँ रखता , जीवन ही प्रसाद अनुभव हो तब अपनी पसन्द और रूचि नहीँ , ईश्वर के मंगलमय विधान में नित्य कृपा रस ही अनुभूत् होता है ।
मुझे यह पसन्द है , अर्थात् ईश्वर की अन्य वस्तु नापसन्द है ।
हमने बहुत से बड़े छोटे छोटे दायरे बना लिए है , उन्हीं में परम् प्रियतम् को पुकारते है , अपने दायरे तोड़े बिन भाव बन्धन की मुक्ति नहीँ । उन्हें अपनी लघु गति-मति-स्थिति के अनुकूल रखने से बेहतर है उनकी विस्तृत चाह अनुकूल रहा जावें ।
ईश्वर को मांगल्य के अतिरिक्त कुछ नहीँ आता , अतः सम्पूर्ण स्वीकार को गहनता से जीवन में उतारना ही है । --  तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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