ख़बरदार , तृषित
ख़बरदार
क्या कर रहे हो इन दिनों
... ... पँखो का इन्तजार , मित्र
कहीं जाना है तो
पँख का इंतज़ार क्यों
कदमों से चले जाओ ...
मित्र ,
यह जो जंगल देखते हो
इसमें बहुत सी पगडंडिया है
सब मुझे जानने लगी है ।
क़दम खुद दौड़ते है मुझसे पहले ...
मित्र ,
यह जो शहर देखते हो
इसकी हर सड़क की मंजिल
मुझे पहचानती है
बहुत बार किसी सड़क से पुकार भी
उठती है ।
पर अब मैंने यह पगडण्डी ओर
यह रास्ते
दोनों पर चलना छोड़ दिया है
पँखों के इंतज़ार में हूँ
सच मे उसे मिलना ही होगा तो पँख भी होंगे
मित्र इन रास्तों और पगडंडियों पर
दिक्कत क्या थी तुम्हें
मुझे ना थी
शेष को बहुत थी ।
नुक्कड़ नुक्कड़ पर
चौकीदारी थी ।
उन्हें पता था मुझे
बुलाया जा रहा है
बिन बुलाए नहीं आया ...
पर उन्हें एक ही शब्द ही घोल
कर पिला दिया गया था ।
ख़बरदार
ख़बरदार
ख़बरदार
क्या सभी रास्तों पर यही शोर था ??
... हाँ यही ।।।
पर यह सब रास्ते तो
बड़ा सुंदर विज्ञापन करते फिरते थे ।
हाँ मित्र यह रास्ते भीड़ तो जुटा लेते है
क्योकि इन रास्तों पर दुकानें बहुत है
पर पहुँचने किसी एक को भी नही देते
स्वप्न महल का चित्र रखते है
पर देहली छूने नहीं देते ।।।
भीतर स्वप्न महल स्वयं भी पुकारें
तब भी यह क्या रोकते है ???
हाँ तब भी यह रोकते है ...
क्योंकि भीतर का शब्द इन्हें सुनाई नहीँ देता
रास्ता अब बाज़ार जो हो गया है ...
पर तुम चिंता ना करो
पँख होंगे
स्वप्न महल बरामदों से प्रवेश भी होगा
इन्हें बाजारों को सजाने दो
हम गगन के अँधेरे में उड़ेंगे
क्योंकि पुकारा तो गया है
और गलती से इस बार सुन भी लिया गया है
--- तृषित ।।।
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