विस्मृत शून्य , तृषित
(विस्मृत शून्य)
अनन्त (विस्मृतियों) भूलों की परिधि पर यह स्थिति है मानवता । यह शून्य की अवस्था है । इसके नीचे पशुत्व है , असुरत्व है । और इसके ऊपर स्व: मह: जन: तप: सत्यं आदि लोक लालसाएं । स्वर्ग - देवत्व - महत्व - जनत्व , तप और सत्य की लालसा।
अधिकांश तो इस मानव रूप में चेतना के विकास के अवसर का विनाश ही रचा जा रहा है । और इस विनाश की रचना चेतना स्वयं अपनी विस्मृति से करती आ रही है । वह उत्थान की लालसा कर विकास के पथ पर बढ़े तब यह मानवीय बिंदु साधना रूप में शुन्य का पुजारी होकर असीम गोता लगाने लगता है । शुन्य का पुजारी , हाँ विकल्प-शुन्य , संकल्पशुन्य , अभिप्सा-शुन्य । इच्छा का सागर अनेकों इच्छाओं कामनाओं को भोगने को नित उतावला है , परन्तु मूलतः वास्तविक इच्छा की उपलब्धि इन नाना इच्छाओं में खो गई है । वह वास्तविक इच्छा है ... शून्य ।
अर्थात प्राकृत इच्छा वस्तु ही जीव की नहीं है , वास्तव में वह मूर्त ही तो है दिव्य भावुक रचियता की । सर्व लोक चेतना रूप जो व्यापक होकर प्रकाशित हो रहा है , वह अनन्त इच्छाओं का समूह सत्य में नाद माधूरी में शून्य (सुप्त) है । नाद ही इच्छा का मूल है । और वही ईश्वर के सर्व हो जाने की यात्रा का कारण-तत्व है ।
मै एक भोगात्मा हूँ , संवेदना-शून्य । भोगी जीव मात्र नहीं नित्यभोगात्मा हूँ । अतः इस संवाद में वाद-और-संवाद भेद समझना अति दुरह स्थिति है । क्योंकि यह अद्वेत शब्दावली है और समस्त द्वेत है । क्योंकि वह समस्त में अभिव्यक्त हो कर रस-भोग अनुभव चाहते है , उनकी व्यापक अभिव्यक्ति को उन्हें निजान्त अनुभव वत देकर जो इस रस-भोग का निर्माल्य आहार लेता हो वह भक्ति पथिक है । अभिन्नत्व की निंदा कर मानव कुछ खोज रहा है । अतः वह पथ से पतित होता है । अभिन्नत्व के संगम को स्वीकार कर मानव उस संगम को साध ले तब ही मानव है । वस्तुतः साधना हेतु मानव हुए हम मानव केवल देह भोग से पीड़ित अवस्था मात्र हो गए है ।
(साकार स्वरूप के कई निंदक आडम्बरियों के प्रचारकों से सन्तप्त होकर यह भावना शब्दाकार हुई है) ...
हम सभी साकार की अवहेलना कर नित्य आडम्बरों में अपने अंत के श्रृंगार में जूटे है । जी , अंत का श्रृंगार जो वस्तु है ही नहीं उसकी सिद्धता गहरी हो तो मानिये बुढापा आ गया । हम सब स्वयं को बड़ी आंतरिकता से नित्य पृथक स्वीकार कर चुके है । पृथक वस्तु जब मिलन को प्राप्त होती है तो वह उस मिलन को अपना अंत ही कहती है ।
और पृथकता है ही नहीं ..तब तो मिलन ही नित्य है , बाधक है अन्तःकरण । इस अन्तःकरण का अंत सम्भव नहीं । इसे निर्मल किया जा सकता है , और मौन भी । निर्मल अन्तःकरण , सत-पात्रता का सूचक है । वह ईश्वर की वस्तु हो जाने की भावना के परिणाम में , ईश्वर का वस्तु को अपना मान कर खेलने की क्रियाशुन्य लीलास्थली है। क्रिया द्वेत का बोध है और लीला एक का अनन्त रास । पुनः कहता हूं , यह लेख पँखो की खोज में उड़ते परिन्दों के लिये मात्र है । भाषा के विश्लेषक इसमें उलझ जाएंगे । और तब ही वह स्वीकार करेंगे द्वेत की अनावश्यकता । दूसरी बात की यह भाषा कल्याण के सूत्रों में अपने विकास की बाधा जब समझ आएगी । भाषा जटिलता नहीं , सहज लालसा शुन्य स्थिति ही है अपभ्रंशों का कारण ... ! भाषा तो संस्कृत रही है और उसमें सरलता-सहजता को कितना ही गाया गया है , अधिकतम आधुनिक प्राणी यह भी कहते रहे है कि शब्दावली से एकता नहीं बनी ...उसके लिये लालसा होनी चाहिये जैसे विदेशी भाषाओं की होती रही , केवल बाह्य सुखों हेतु । शरीर पर मल सुखने पर वह पवित्र नहीं होता सो अपभ्रंश या संसृत कभी सरल नहीं है ...मूल लिपि या मूल शास्त्र अथवा शास्त्रों का मूल नादब्रह्म ही सरल सहज मान्य है ।
भावना की परता होने पर आवश्यकता है , पृथक इच्छा की । जितनी तीव्रता से वह स्वयं के आंदोलन में नाद होकर जगत हो गया है । उतनी ही तीव्र मधुरत्व की इच्छा में अपनी अनुपस्थिति की लालसा आवश्यक है । लोस्ट माई सेल्फ ...यह प्रेम है । मधुर शुन्य । एकांतिक रमण है ...भीड़ कोलाहल तनिक नहीं ...यह कोमल हृदय का जीवन है ।
यह संवाद द्वेत जगत में हास्य मात्र प्रकट होगा । क्योंकि मैं हूँ ही नहीं यह बात सिद्ध करना ही अपने होने को सिद्ध करना है । अनुभूति मात्र है यह । शून्य । अपनी शून्यता सर्व की सर्वता में डुबो देती है ।
वह मधुर शून्यकाल केवल बाह्य शून्य है भीतर रसोच्छलन उन्माद विलास का महोत्सव नित्य है सो यह शून्य कल्याण का बीज है , और वही स्वयं कल्याण का स्वरूप , कल्याण का स्वभाव , कल्याण का महाफल है । समस्त यात्रा अगर उसकी ही निज यात्रा है तो उत्सवित कल्याण प्राप्ति नित्य है । मिलन तो उस परमोच्च स्थिति में उसी की इच्छा का होना है । पृथक इच्छा लेकर उससे मिलन भी संभव नहीं । अपने स्वरूप दर्शन लालसा में वह अपना स्वरूप दर्शन ही करें , ना कि द्वितीय स्थिति उसके समक्ष अपने अज्ञान के भाषण को बखाने । क्योंकि यही अज्ञान कि मैं भी हूं , और वह भी । उस मधुर रसिक की निज इच्छा का शून्य हो जाना है ।
प्रेम तो मधुलालसा की सिद्धि है ...मधु भोग सेवा प्रेमास्पद की , प्रियतम की लालसाओं में लास्य सिद्धि ...रास । ऐसे ही अन्य पथ वास्तविक पुकार में भ्रांति के खो जाने की ही अवस्था है ।
आज मनुष्यता अधोगमन पर है क्योंकि आत्म चिंतन छूट गया है ...आत्म चिंतन में वह आत्म स्वरूप विभुता की यात्रा पर निकल कर जब मधुर होकर निकुँज प्रवेश में स्वयं के निजरस को सुलभ होते है तब कहीं बिन्दु भर दिव्य आस्वादन मिलता है निजता का ...हरि स्वरूप को विलास सुलभ होना ही आत्म सुलभता की रसिली क्रीड़ाओं का निमंत्रण है । आज प्रकाश का अपमान और अंधकार की निंदा दोनों है । जी , रात्रि को रात्रि कौन मानव स्वीकारने को तैयार है । हाँ दिवा-रात्रि का सदुपयोग मनुष्य रहित सर्व जगत करता है । मनुष्य दिन को रात और रात दिन बना कर कहता है ... मैं प्रेमी हूँ ।
प्रेम हृदय पर उतरने लगें तो वहाँ दो इच्छा होती नहीं और मूल में जो इच्छा होती है वह प्रियतम की निज इच्छा होती है । जगत के स्वरूप को छिपाने , और नित्य स्व चेतना के रसास्वादन में उतर जाने की अवधि ही रात्रि है । जगत का स्वरूप जिसे सत्य माना गया है उसे अंधकार में भूल कर वास्तविक आंतरिक आंदोलन की स्थिति रात्रि है , और वहाँ है महाभाव चेतनाओं का रसविश्राम । जगत की भोग वासना में डूबा पशु रूपी आकृति मात्र मनुष्य , रात्रि को मात्र देह विश्राम समझता है ...गोविन्द संस्पर्श लालसा में भीगते किसी महाभावुक के महाभावित प्राण ही इस रजनी की माधुरियों को छूते हो... । ...मनुष्य का शून्य भी कितना उथला हो चुका है । आंतरिक भास्कर और हृदयस्थ सोम दोनों ही उसके संकोचित होकर खो गए है क्योंकि असत में सत की यह चेतन बिन्दु वास्तविक दाहिका (अग्नि) को खो चुकी है । तृषित । अपनी आंतरिक अग्नि को पहचानिये , इच्छाओं की शून्यता पर । तृषित । श्री... नाम मे ईश्वर के अग्नि-सूर्य-सोम तीनों स्थितियों के स्नान छिपे है । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।
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