कृपा , तृषित

कृपा

यह अप्राकृत शक्ति आह्लाद है , बोलचाल में कृपा को तत्व रूप चिंतन करते है । है यह आह्लाद । कृपा विधान की विधि से नहीं श्रीप्रेममयप्रभु के हृदय की भावना है । कृपालुता में उनकी (श्यामासुन्दर की) करुणा प्रकट हो जाती है ।
कृपा में स्पर्श करने की भावना भी उनकी आंतरिक है , कृपा कभी पथिक को पथ नहीं निर्देशित करती । वह उसके लक्ष्य फल को अमृत रूप पिला देने के लिये ही प्रकट होती है ।
बाह्य जीवन मे कृपा की अनिवार्यता नहीं है , स्व सिद्धि का विकार सदा है कि मेरे द्वारा ऐसा होना , वैसा होना । अतः बाह्य जीवन कृपा को अनुभूत ही नहीं कर सकता । करेगा तो भोग सामग्री के विस्तार को ही कृपा कह देगा । गाड़ियों पर लिखेगा यह कृपा , वह कृपा ।
यह भोग में धँसना कृपा कभी है ही नहीं । कृपा की अनुभूति होगी अप्रयत्न पर । प्रयत्न करना ही उनके द्वारा उनकी वस्तु नियंत्रित है यह भाव खो जाता है । कर्म के नाम पर भोग सिद्धि ही जगत कर रहा है । भोग जुटा कर समझता है मैं कर्म योगी हूँ । कर्म योगी उसे कहे हम जो अकेले निकल पड़े गंगा यमुना के श्रृंगार हेतु । मुँह ना देखें , न चिंतन करें कि क्या मिल पायेगा और क्या नहीं ...
आज के कर्म योगी केवल मूल में भोगी ही है और जो भोगी है वह ईश्वर और जगत में सदा भोग सिद्धि हेतु जगत का चुनाव कर रहा है ,प्रकट रूप से ही देख लीजिये । भोग छूटते है अतः आकर भी आ नहीं पाते आध्यात्मिक पथ पर कोई ।
भोग अवस्था भोग पूर्ति को कृपा कहती है , वहाँ कृपा इतनी ही अनुभूत है । परन्तु कृपा आंतरिक प्रेम समेटे है उनका । और उसकी अनुभूति के लिये भोग निवृत्ति आवश्यक है । इच्छा शुन्य स्थिति पर अप्रयत्न स्थिति पर जो भी नव विकास का पथ प्रकट होगा वह कृपा है । भीतर हृदय में प्रेमांकुरण से पूर्णतम के आलिंगन तक क्रिया शील शक्ति केवल कृपा है । वास्तव में कृपा की अनुभूति से पूर्व जीव स्वयं अपनी सुरक्षा कर लेता है , अतः वह कृपा को अनुभूत नहीँ कर पाता । कृपा की अनुभूति के लिये प्रलय से भागना नहीं अपितु प्रलय में विलास दर्शन चक्षु की आवश्यकता है । जीव को ईश्वर जब भी वरण करने के लिये प्रकट होते है जड़मति जीव भाग जाता है । क्योंकि कृपा का प्राकृत स्वरूप दुःख रूप है । आंतरिक वह रसालय में डूबने की अनुभूति है । आंतरिक अनुभूतियां जीवन के उत्तर काल मे फ़िल्म की तरह
घूम जाती है । तृषित । जीवन को जीवनमय अनुभूत करना ही कृपा है । दुःख से भागने वाले कैसे कृपा को प्राकृत भी अनुभूत करेंगे । तो कृपा की अप्राकृत सुधा लहरी जो कि प्रियतम निज हृदय से ही उठ रहा स्पंदन है । कृपा , मन रूपी भृमर को सीधे मकरन्द पान के लिये अवतरित होती है ना कि प्राकृत किसी भव कलि पान मात्र । मकरन्द पान का पथिक भृमर दृश्य मात्र भृमर होता है ... मकरन्द की सौरभ-सौंदर्य लहरी में भृमर की आंतरिकता मकरन्द हो ही जाती है । मूल में भोग है ही नहीं , भोग पथिक विपरीत जा रहा है । अप्राकृत दिव्य सुकोमल निर्मल मकरन्द को सर्वभोगेश्वर स्वयं अनुभूत कर पाते है । भोग निवृत्ति कृपा शक्ति है अपराप्रेम है । श्यामासुन्दर के भोग विलास रस में उनकी निज भोगेच्छा खो जाती है । ब्रह्म खो जाता है प्रेम में डूब कर कृपा वह माधुर्य अनुभूति है । तृषित । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी

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