रस भाव चर्चा तृषित

प्रश्न--  प्रेम जितना कम होता है  श्यामसुन्दर को देख पाना उतना सरल होता है । सरल से तात्पर्य सुलभ नहीं ।सरल से अर्थ यह कि उनके लिये प्रेमानुभूति न्यून होने पर तद्नुसार ही वे ग्राह्य हो पाते हैं ॥इसी कारण हम जैसे साधारण लोगों को उनके पूर्ण स्वरूप के दर्शन करनेमें कोई अक्षमता् प्रतीत नहीं होती ॥ परंतु जो भावमय प्रेमी होते हैं वे एक अंग के दर्शनों से आगे ही नहीं बढ पाते ॥
अब पूछना यह है कि जब नेक सो भाव भावित हृदय ही भाव में डूब सुध बुध खो बैठता है ॥और महाभावसिंधु श्री राधिका की यह स्थिती कि कृष्ण अंग गंध के कण मात्र से वे भाव समाधि में चली जातीं हैं ॥ कृष्ण नाम भी जैसे ही कानों में प्रवेश करता है प्यारी के तो वे चेतना खो बैठती हैं ॥एसा अद्वितीय प्रेम है उनका ॥तो लीला कैसे संभव हो पाती है ?? जबकी नित्य विहार तो अविराम निर्बाध रूप से हो रहा है ॥और किस प्रकार केलि संभव हो पाती है ॥ कृष्ण अंग सुगंध का कण मात्र ही रसजडता में ले जाता है प्यारी को तो फिर जब वे नित्य संपूर्ण स्वयं श्री प्रिया के गहन आलिंगन में या आलिंगन छोडिए स्वयं सन्मुख विराजमान हैं तो रस जडता से बाहर आना कैसे संभव हो पाता है ॥

कृष्ण-,अनुग्रह प्रेमानुभूति में अवश्यमेव रसजड़ता है ।
वही रस  जड़ता  पार करना प्रेम है ।
प्राकृत नशे कुछ नहीं इस रसजड़ता रूपी व्यसन में डूबने के समक्ष ।
इस रस का पान ही आनन्द रूप स्वीकार्य है । परंतु यह पूर्ण आनन्द नहीं
जिस आनन्द में करुणा न बहती हो वह मधुर नहीं है
: यहीं करुणा की बाढ़ । करुणासिंधु राशि ही ... प्रियाजु ...
तत्सुख । भाव दृष्टा हेतु मात्र । इस अवस्था मे वह उनका निज सुख है । और यही व्यसन उनका सच्चा है । जीव जड़ता के कारण कृष्ण सँग की महत्ता से अपरिचित है । वह कृष्णसँगिनी ... अंगिनी ... रंगिणि । तरंगिनि । प्रवाहिणी । धारिणी । मानिनी । भामिनि । भाविनी । क्या कहें उन्हें ...
सँग में डूब । इस कृष्ण अनुभूति से अभिन्न होकर इस रसजड़ता से सुखार्थ लीला बहुत गहन स्थिति है यह ।
पानी मे मीठा घोलना भी रस है और शहद भी रस है । रस गाढ़ता में स्थिरता गहराने लगती ... मधुता भी ।
मूल में लीला बड़ी न्यून क्रिया शील है
जैसे एक दो किया जा रहा हो ऐसी स्थिति ।
कम से कम वे दोनों और सखी उन्हें दो स्वीकार करती ही नहीं
श्रीप्रियारमण ही आत्मरमण है उनका
परन्तु यह आत्म रमण अति गहन है
मैं इसलिये अधिक बाह्य लीला पढता नहीं
तीव्र गति रस गाढ़ता में होती नहीं
ताल ( भाव रूपी रिद्म )तीव्र हो तब व्याकुलता और गहराती ।
जो भी दोनों से पृथक प्रकाशित हो
बाह्य लीला जीव सुख है । रसराज महाभाव का यथेष्ठ सुख नहीं
आपने पूर्वोक्त लेख इन दिनों के मनन पूर्वक पढ़े हो मेरे द्वारा दिये तो ब्रह्मा जी की आयु पर्यंत उनकी पलक झपकती है । इतनी स्थिरता है ।
: इतनी घनीभूत लीला को जीव पलों में चाहता
28 कलयुग पर इंद्र बदलते है , 27 इंद्र बदलने पर ब्रह्मा जी का एक दिवारात्रि । ऐसे 100 वर्ष ब्रह्मा जी के । और यह श्री श्यामासुन्दर का निमिष मात्र
निमिष की दीर्घता हेतु यह कालनिर्णय है । कितनी प्रेममयता है यह यहाँ से देखिये
ब्रह्मा बदल जाते । उनकी पलक झपकने तक । कौन लीला दर्शन करेगा फिर इतने दीर्घकाल के ऊपर कालशून्यता है ।
वस्तुतः श्रीश्यामाश्याम हृदयस्थ हो अथवा प्रकट । या विग्रह स्वरूप ब्रह्म अपनी स्वभाविकता खो देता है उनके नेत्र कोर की गति मात्र से । भ्रू विक्षेप से समस्त खो जाता है ।

लीला दर्शन ही सार्थकता है क्या ??
यह प्रश्न परमार्थ रूप नही है ।
लीला दर्शन ही सार्थकता है ,परन्तु इस स्थिति में स्थिति की कोई साधना नहीं है ।
चेतन का चेतन दर्शन होना क्या सार्थकता ना होगी
पर यह होगी जड़ता को उतारने से
जड़ता कृपा से उतरती है। किसी साधन से नहीं ।
अब दूसरा पहलूँ । सार्थकता स्वभाव उपलब्धि है
वह ही अनुपलब्ध

अतः लीला दर्शन नहीं स्वभाव उपलब्ध होना सार्थकता है
और लीला दर्शन एक पृथकता है । लीला का अंग होना एक अभिन्नता ली हुई भाव गत पृथकता मात्र
स्वभाव प्राप्त नही होता । प्राप्ति क्रिया का फल है । उपलब्ध होता है ।
भगवद्विग्रह के सभी भाग पढिये
उसमे सब स्पष्ट व्याकुलता से साधन कुछ भी हो ।परन्तु है कृपा-लभ्य । साधन तो अपनी आँखों का मैल हटाना भर है । पर वर्तमान में साधन से मैल चढ़ रहा है ।
कृपा से ही सुलभता है यह बात ही व्याकुलता बढाती है
कर्म से सुलभ मानने वाले की व्याकुलता गहराती नहीं
उनकी कृपा को छुं जाये ऐसी व्याकुलता हो । असमर्थता में सच्ची व्याकुलता है ।
जीव को स्वभाव उपलब्धि की प्यास हो बस । और है भी यही बस समझ नही पाता ।
नित्य लीला न पूर्ण अभिन्नता न पूर्ण भिन्नता । अभिन्न  होकर भिन्न रहकर अभिन्न सुख की सिद्धि हेतु सेवायत होने की भावना है । सिद्धता है , सिद्ध देह हो जाना । भाव देह हो जाना । अथवा विशुद्ध सत्व में डूब जाना सब एक है ।
बात हो रही थी प्रियाजु की वह स्थिति की।
कैसे स्वानन्द से सेवालालसा की उछाल होती है
सेवा सुख होने से
यह सत्य है । अति निकटता पर गहन मधुता की गाढ़ता जो की अति घनीभूत है । जब पुराण में गोलोक का देवताओं का प्रवेश प्रसंग आता है तो स्पष्ट है । विधाता को भी दृश्य नही होता ऐसा दिव्य दर्शन है यह ।
जीव भी नित्य है । सेवा कौन करता है दिव्य लोकों में । जीव तत्व की ग्रहणता सत्य में सेवा रूप तीसरी स्थिति दास्य की नित्य स्वीकारता है , यहीं पुराण को सत्य मानना कि सत्य में श्रीवृन्दावन और गोलोक आदि की सत्यता जब उतरती है भीतर तब पता चलता है , जीव तत्व जो भावदेह को स्पर्श कर स्वरूप स्वभाव जाग्रत कर नित्य सँग में सेवामय लालसा में डूबा हो ।
यही उनके सुख का विलास है । अनन्त विस्तार है , इस सुख के श्री कृष्ण में लालसामय होने से श्रीप्रिया स्वरूप तक समस्त श्रीमहाभाव तत्व है ।
जीव स्वभावतः नित्य दास
बड़ी सहजता से इसे महाप्रभु अपने पथिकों को पिला गए है
निभृत स्थिति अतिघनिभूत काल-माया शुन्य महाकाल में महामाया श्रीवृन्दा के विस्तार से महारस-महाभाव का नित्य मिलन है ।
काल-माया का प्रवेश नहीं ।
पर महाकाल में महामाया का भगवदीय सुख विलास में महाभाव की भाव अणुता अर्थात पद्मकरन्देष्ठ अणु वहाँ नित्य है ।
परन्तु यह स्थिति की अभिलाषा  हम वासनामय भोग देह में नही प्रकट हो सकती ।

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