भगवद् स्वीकार्यता ,

भगवद् स्वीकार्यता

भगवद् स्वीकार्यता से हम यही समझते मानते जानते हैं कि भगवद् दर्शन प्राप्त हो जावें , उनका नित्य सानिध्य प्राप्त हो जावे अथवा लीला दर्शन या लीला में स्थान प्राप्ति हो जावे ॥ यह सब उनके परम अनुग्रह से संभव है परंतु इसके साथ साथ कुछ अन्य स्वरूप भी हैं भगवद् स्वीकार्यता के जो सामान्यतः हम देख नहीं पाते अथवा देखना चाहते ही नहीं ॥ श्रीभगवान् ने हमारा स्वीकार कर लिया है इसे मानने के लिये एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है ॥ यद्यपि प्रत्येक जीव उन्हें पूर्व ही स्वीकृत है क्योंकि प्रत्येक अस्तित्व उन्हीं का है ही परंतु माया की दी गयी विस्मृति से हम सब उन्हें भुलाकर जगत को और इन भासित होते संबंधों की ही सत्य और परम आत्मीय मान रहे हैं ॥ उन्हीं की विशेष कृपा से उनकी स्मृति संभव हो पाती है ॥ उस समय जीव उनकी स्वीकृती की आशा करता है ॥यह भी स्वभाविक ही है क्योंकि सदा से स्वीकृत को जब विरह का भास होता है तभी तो उस विरहानल में समस्त मायिक स्व भस्मीभूत हो पाते हैं ॥ श्री भगवान ने हमें अपना लिया है यह अनुभूति भी उनकी कृपा से ही हृदय को छू पाती है ॥ कहा जाता है चार स्वरूप हैं श्री भगवान् के नाम स्वरूप लीला और धाम ॥ इन  चारो में से यदि एक भी हमें धारण किये हुये है तब यह निश्चित मानना होगा कि हमारा स्वीकार हो चुका है ॥ जी हाँ वस्तुतः ये ही जीव को धारण करते हैं जीव की सामर्थ्य कहाँ जो इन्हें पकड सके ये ही पकड लेते हैं कृपावश ॥नाम में नामी का वास कहा जाता है ॥ नाम ही स्वयं चुन लेता प्राणी को ॥ जो भी साधक नामाश्रय में है वास्तव में तो भगवान द्वारा अपनाया ही जा चुका है ॥ दूसरा स्वरूप है रूप । यहाँ माना जाता है कि श्री भगवान का रूप दर्शन जिसे हो गया या हो रहा है वह अपनाया जा चुका है परंतु यहाँ कुछ व्यापक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है ॥ श्री भगवान का दिव्य चिन्मय रूप तो उनका स्वरूप है ही परंतु इस संसार में भी कुछ रूप व्याप्त  हैं उनके ॥ वे रूप हैं उनके स्वजन अर्थात् संत प्रवर रसिकवृंद महात्मा तथा भक्त गण ॥ जब कोई भगवद् जन किसी दीन प्राणी को अपना लेते हैं तो वह प्रत्यक्ष भगवद् स्वीकृति है ॥ उनके स्वजनों के चित्त में यदि किसी के प्रति करुणा प्रेम आदि सात्विक भावों का उद्गम होता है तो सत्य यही है कि भगवन् चरणों में स्थान सुनिश्चित हो चुका है ॥ यही भगवद् कृपा का सबसे विस्तृत और व्यापक रूप है ॥ श्रीभगवान् के स्वजन उनसे तनिक भी पृथक नहीं हैं ॥ उनके हृदय में किसी के प्रति भाव संचार ही तब होगा जब भगवान् उस प्राणी को अपना लेते हैं ॥ अर्थात् दोनों में से किसी के भी चित्त में करुणा उमड़े परिणाम एक ही है क्योंकि दोनों अभिन्न हैं ॥ संसार में हम बहुतों को प्रिय और अति प्रिय होते हैं परंतु हमारे लिये वह प्रियता माया की प्रियता है ॥ समस्त संबंधों के समस्त मोह तन्तु माया के ही पाश हैं ॥ संसार में जो भी प्रेम से देख रहा है वह माया के द्वारा ही देखा जाना है ॥ परंतु यदि हमारे  इस जलते जीवन में किसी एक भगवद् भक्त का संत का रसिक का पदार्पण हो जाता है तो यह निश्चित है कि माया से परे मायापति की दृष्टि हम पर पड चुकी है ॥ वे स्वीकार कर लिये हमें ॥ वास्तव में संत हमारे जीवन में नहीं आते वे हमें अपने जीवन में स्थान दे देते हैं ॥ वे स्वीकार करते हैं हमारा ॥ संसारी मनुष्य सोचता है कि मेरे जीवन में किन्हीं संत का प्रवेश हो जावे परंतु सूक्ष्मता से चिंतन करें तो प्रार्थना यह होनी चाहिये कि मुझे किसी संत के जीवन में स्थान मिल जावे ॥ किन्हीं संत की भक्त की दृष्टि भी जिस पर करुणा वश गिर जाती है वह उनके जीवन में प्रवेश पा जाता है ॥ और जो एक बार अपना लेते हैं वे कैसी भी विपरीत परिस्थिति आवे कभी त्याग नहीं करते ॥ यद्यपि माया से ग्रस्त जीव अपने दुर्गुणों से उन्हे अपार कष्ट देने में कोई कमी नहीं रखता परंतु वे दयामय कभी निज स्वभाव का त्याग नहीं करते ॥माया ग्रस्त अभिमानी मनुष्य बार बार तिरस्कार भी करता है भगवद् जन का परंतु उनकी करुणा उसे स्वीकारते ही रहती है ॥ मोह ग्रस्त मनुष्य उन्हें भी अपने समान ही सामान्य विकारी मान लेता है परंतु जो श्री भगवान का स्वभाव वही उनके जनों का स्वभाव होता है ॥ यह स्वजन भी श्रीभगवान का रूप ही तो हैं जो हमारे मायिक नेत्रों के लिये प्रत्यक्ष हैं ॥

सभी भगवद् भक्तों के चरणों में प्रणाम ॥

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