मेरा आकलन ना करे

[3/6, 00:48] सत्यजीत तृषित: मेरे आकलन से बहुत लोग
अपना समय नष्ट कर देते है।
लगता है , या तो सब बनावट
है । जी बनावट तो है , वरन्
साहस सम्भव नहीँ । कहने
का । हाँ गोपनीय से गोपनीय
बात की जा सकती है , अगर
वह स्वीकृति दे ही दे तो ।
गोपनीय बात में सदा पीड़ा होती
है , कहने पर , लिखने पर ।
परन्तु आदेश और किन्हीं का मिलन
वहाँ अधिक महत्व रखता है ।
बहुत से निराकरण लिखित हो कर
भी शीघ्र नहीँ हो पाते , कई बार
जहाँ पूछा जाता है वहाँ जान कर
समाधान नहीँ होते , कारण इससे
गुरुत्व जाता है , संवाद आपको
समक्ष ला देता है , कहने वाले जो
झुकाता है , सुनने वाले को उठाता
है , यह मैंने बहुत अनुभव किया ,
लोग पोथी पढ़ी बात नहीँ कहते ,
कृपा से अनुभव और दर्शन में आई
तो असम्भव ही है ।
यहाँ अन्य का स्तर उठता है ,
फिर आपका महत्व इतना नहीँ रह
जाता । अतः पूछ कर उत्तर ना मिले जहाँ से वहाँ सौ चक्कर हो , तब भी
तो प्रश्न कर्ता में प्रश्न का महत्व अधिक होता है , वह सोचता है मैंने बड़ी बात पूछ ली , समाधान आपके प्रश्न के स्तर को तोड़ता है , और दुविधा में डाल देना , प्रश्न की महिमा बढ़ाता है ।
बहुत बार प्रश्न कर उत्तर की चाह नहीँ होती । उत्तर देने वाला मुर्ख , मौन रहने वाला ही योग्य प्रतीत होता है ।
यहाँ शब्द विज्ञान का बोध हो तो तत्क्षण निदान अनिवार्य है , अगर ज्ञात है तो , वरन् वह प्रश्न सिद्ध हो जाएगा और एक नया सम्प्रदाय खड़ा कर देगा । नई धारणा ।
प्रश्नो के उत्तर नहीँ मिलने से ही
सनातन धर्म दृश्य जगत में दीखता नहीँ ।

मेरे विषय में कहू , मौन ही अनिवार्य है । वहीँ अब मिलन है । परन्तु
यह मेरी चाह है , भगवत् चाह नहीँ । वर्तमान आवश्यक धर्मो की सिद्धि पर मौन होना उन्हें स्वीकार है । अतः भाव केवल युगल की लौकिक
पारलौकिक सेवा ही है ।

आज एक रहस्य और खुला ।
हम चाहते है , मैं ही पहुँचूँ ।
आज कुछ घटा , जिसे रिकॉर्ड
करना था , पर अब उतना स्मरण
में नहीँ , सार रूप में कहू तो
अगर बाहर और भीतर की प्रकृति
हमें रोकती है , तो हम हर योग्य वस्तु को कहे , चलोगी मेरे संग ।
हर डाल , हर पते को , जल ,
झरना , पर्वत सभी को , सबसे कहा
जाएं उनके वास्तविक दिव्य स्वरूप
में उन्हें पाने को । अर्थात् जल का गिलास भी , उसे भी कहा जाये
देखो तुम्हारा एक दिव्य स्वरूप है ,
मणिमय , रत्नों से सुसज्जित , युगल
सेवा में , तुम वहाँ मिलोगे ना ।
इस तरह सभी दृश्य जगत को अप्राकृत जगत में सिद्ध कर दिव्य रूप देखने की भावना से ही , सहज
अप्राकृत रस संग हो लेता है ।
हर वस्तु में इच्छा जगा दो , युगल हेतु , फिर वह तुम्हे नहीँ रोक सकती । गुप्त रखने हेतु यह बात अधूरी कर
रहा हूँ ।

जिन्हें पूर्ण विश्वास है ।
मानने को तैयार , वह
किसी भी स्तर की सहज
प्राप्ति पा सकते है ।
युगल कृपा से ।

प्राप्ति स्व भाव से ही सम्भव है ।
बाहर से केवल बाहरी सहायता होती है ।
[3/6, 00:57] सत्यजीत तृषित: ईश्वर अदृश्य हो , मौन हो , गोपनीय हो , तब तक ही भय और  उन्हें भाना होता रहता है ,
उनसे किसी भी तरह मिल कर भी , और श्रद्धा होना , और विश्वास , भाव होना ही प्रेम है , भक्ति है ।

वरन् प्रारम्भ मिलन का आभास तो लौटा ही देगा ।
यहाँ वहीँ सूत्र रहता है ।
जैसी भावना वैसा दर्शन ।
वह मिलते है , पर कैसे ?
जैसी हमारी भावना हो । वैसे

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