किंकरी सहचरि मञ्जरी भाव वार्ता

*यह एक रहस्य है जब तक अनुभूत ना हो* ---
सम्भव है स्वीकार्य ना हो

सखी की त्यागमय वृति मञ्जरी है
सेवा मय वृति किंकरी है
और प्रेम मय वृति सहचरि है

*एक ही सखी तीनो भाव से हो सकती है , यह रहस्य है ।*

मञ्जरी , युगल की चाह पर भी कृष्ण सुख स्वीकार नहीँ करती ,
भले दोनों ही कहे ।
क्योंकि मोहन केवल श्यामा के है ।

उसके लिये हमे अर्पित वस्तु गुरदेव को देनी है वे मंजीरीगण को देगी । वे अष्टसखियन को और वे युगल सेवा मे पहुचा देगी ऐसा है

किंकरी सेवा हेतु सदा लालायित होती है और क्या करुँ इन हेतु यह विचारती है ।

आगे अष्ट सखी परीक्षा भी लेती है

*लीला में पवित्रतम् विशुद्ध भावना ही पहुँचती है*

जिनमें भोग नहीँ रहता जो त्याग की पराकाष्ठा को छू लें , प्रेम में प्रियतम वस्तु का त्याग होता है जो अति प्रिय हो , उस त्याग के हृदय में प्रकट होते ही रस वर्धन और भोग की भावना मात्र से रस क्षीण होता है ।

*परीक्षा के नाम से भयभीत ना होवें । परीक्षा तत्सुख ही होता है*

नहीँ । मञ्जरी और किंकरी परस्पर सेवा नहीँ लेती

केवल अपनी प्रधान सखी , और युगल सेवा ।
जैसे हरिदासी भाव से , ललिता जी की अनुगामिनी होते है ।
ऐसे ही अष्ट सखी में किन्हीं की भी अनुगामिनी हुआ जा सकता है
और एक गुप्त बात 8 की 8 सखियों की सेवा करते हुए भी युगल का रस पीया जा सकता है

युगल रस अप्राप्त नहीँ ।
*बस तत्सुख वृति गहरे दर्शन करा देती है ।*
वरन् वह बिन पथ भी मिल ते ही है ।
परन्तु दर्शन के गहरे पन की लालसा से यह पथ है ।
केवल दर्शन ही करना हो , वह प्राकृत रूप में आते ही है ।
सच्चे प्रेमी से वह ना मिले , यह असम्भव है । पर वास्तव में सच्चे प्रेमी उनसे नहीँ मिलते

इस पथ पर तीन ही वृति है
सेवा
त्याग
प्रेम
तीनो के लिए तीन भाव है
शेयर न कीजिये मानस में आत्मशोध करने का विषय ,
क्योंकि यह कोई मानेगा नहीँ

गौड़ीय मत , त्याग प्रधान है ।
हित हरिवंश जु मत सेवा प्रधान है ।
हरिदासी मत प्रेम प्रधान है ।
लीला दर्शन में भी दर्शन में भाव से रस भिन्न अनुभूत है जैसे हरिदासी भाव में युगल प्रेम दर्शन महत्व है । अर्थात् वहाँ युगल पृथ्क्य विचार ही नहीँ । ललित क्रीड़ा दर्शन ही , और वहाँ सहचरी अर्थात् युगल प्रेम वर्धक भाव और सभी वस्तु आदि वहाँ सहचरी है , वहाँ भावना जितना गहन दर्शन देख पाने में समर्थ हो युगल परस्पर उतना ही प्रेममय अनुभूत होते है ।
राधावल्लभ भाव में सखी सेविका युगल की । सेवा और युगल श्रृंगार का गहन दर्शन यहाँ जिससे वह सेवा की जाए जो युगल को प्रिय है ।
यहाँ दर्शन सेवा भाव से श्रृंगार सौंदर्य का गहन दर्शन करते है ।
युगल के मध्य प्रेम रूपी हित और समस्त युगल प्रेम-हित की वस्तु में यह भावना है ।
गौड़ीय भाव में युगल का त्याग से भाव वर्धन होता रहता है । परस्पर तत्सुख से रस-प्रेम गहन स्थिति पर होते है ।

किसी भी भाव में लीला दर्शन उन्हें नही होता जो दर्शक रूप लीला को भोगना चाहें , बल्कि उन्हें होता है जो दर्शन की वास्तविक्ता पर सन्देह हीन और युगल हित भाव से दर्शन करें ।

पथ में सुख है ।
पथिक रहे ।
भले युग लगे ।
पर पथ रहे।
पथ ही धारा है
और धारा ही ...
भगवान को पाना सरल है

भगवत् प्रेम से मिलन असहज

पाया तो दुर्योधन , जरासन्ध और
महाभारत के करोड़ो सैनिको ने प्रत्यक्ष ही था ।
प्रेम में रस है । प्रेम नहीँ तो हम उन्हें बहरूपिया समझ भगा देगें , और यह होता है ।

मञ्जरी और किंकरी
अपने मूल सखी ,फिर गुरु स्वरूप सखी ,  और युगल की सेवा करती है । हाँ प्रेम में वहाँ कोई भेद नहीँ ।
परन्तु मञ्जरी की सेवा किंकरी नहीँ करती । मञ्जरी सेवा लेती ही नहीँ । ना ही किंकरी सेवा लेती है । भाव होता है परस्पर सेवा का , परन्तु वहाँ सेवा अष्ट सखी , युगल की ही होती है ।
सेवा में कभी श्री जी संग होती है
और कभी श्यामसुन्दर संग होते है ।
इन सब बातो को यूँ कहने से इन पर सन्देह होता है । और कहने वाले की भावना में असर पड़ता है , पर फिर भी कहा । हाँ सन्देह ना हो , तो कहने पर भाव और गहरा होता है ।
[3/8, 15:02] सत्यजीत तृषित: सेवा नहीँ लेती पर , उनकी सेवा की जाती है । जैसे हरिदासी भाव में ललिता जी की
[3/8, 15:25] सत्यजीत तृषित: सुख और प्राप्त शब्द

मञ्जरी और किंकरी नहीँ समझती

युगल और प्रधान सखियों की भाव भंगिमाओं को जान लालायित रहना है ।
जैसे विशाखा सखी श्री जी पर स्नान के समय जल की झारी करे तो उनकी अनुगामिनी अग्रिम झारी लिए खड़ी होगी । आगे तक की सभी सेवा तैयार रखना । अगर श्री जी का पथ पता है तो हाथ से उसे साफ़ करना । सेवा में मर्म की आवश्यकता है । जीवन में शॉर्टकट निकालने वाले हम सेवा के भ्रम में है । सेवा में ही नहीँ ।
एक बात और।
दैहिक ही नहीँ ,वहाँ सब चेतन है ।
वहाँ मेहँदी हो , उबटन हो , हल्दी हो , इत्र हो , कुछ भी हो सब सेवा में रसिक सन्त और सिद्ध सन्त ही है ।

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