जिस भी क्रिया विधि से अहंकार सिद्ध हो वह बाधक है , सत्यजीत

जिस भी क्रिया , तथ्य , विचार आदि से अहंकार सिद्ध हो वह बाधक है ।
बाहर से वह पूण्य , दान , सेवा , त्याग लग सकती है भीतर वह बाधक है ।

इसका कारण सच्चे ज्ञान की उपेक्षा ।  मूल में मिली हुई हर वस्तु उन्ही की है । बस यहाँ से वहाँ रखनी है । इसमें अहंकार क्या ?
कल से मेरे पास करोड़ों की कोठी की चाबी थी पर चाबी मेरे पास होने से कोठी मेरी नहीँ । अतः सदा ऐसा है । अंदर से बाहर निरीक्षण करने पर भगवान के साम्राज्य के अतिरिक्त कुछ नहीँ । यह बोध सहज भगवत् विधान को रसमय जीवंत करता है ।

सेवा , त्याग , आदि में दोष नहीँ , दोष अल्पज्ञता में है । मेरेपन में , बन्दर हमारी किसी वस्तु को अपनी जान नष्ट करें तो हमें कष्ट होता है न  । परन्तु उनकी वस्तु को नष्ट करने पर उन्हें कष्ट होता भी है और नहीँ भी । होता इसलिये है कि वें प्रेमी हैं हमारा हित चाहते है और कष्ट नहीँ होता क्योंकि वह भगवान है वस्तु आदि ममता रहित ,  निर्विकल्प-निरातीत-निर्विचार है ।
यहाँ हम उन्हें क्या मानते है उस अनुरूप बोध होगा । भगवान या प्रियतम् । सत्यजीत तृषित  ।

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