बाहरी नहीँ अन्तः करण से जुड़ने की आवश्यकता है , सत्यजीत तृषित
सारा दिन अगर मैं अगर कोई माला या स्तोत्र करुँ । जैसे श्री कृषणम् शरणम् मम् की माला करुँ ।
और उठ कर वही सब जीवन ।
तो इतना कह कर भी मैंने चाहा तो नहीँ , कि वें मुझे शरण लें ले ।
मैंने क्यों नहीँ चाहा , क्योंकि मुझे कामना है , और लग रहा है शरण में होने पर फिर पूर्ण न होगी ।
आपने सिक्के देखें है न कोई दुकानदार किसी वस्तु के बदलें में कोई सिक्का देवे तब वह हम यह कह कर नहीँ लौटाते यह तो आपका है , मैं इसे नहीँ जानता । अपना न होते हुए भी वह हमारा है यह हम जानते है । और लें लेते है और जब भी अपने पास उसे पाते है तो अपना पाते है । किसी अन्य का नहीँ । और फिर कभी आवश्यकता होने पर उसे कहीँ भी किसी को भी दे देते है ।
यह उस सिक्के का शरण होना है ।
परवाह रहित ।
वस्तु और जीव जगत् और वनस्पति में शरणागति देखने में आती है , मनुष्य में नहीँ ।
हम कहते है भगवान के है हम , पर यहाँ सिक्योरिटी की सूक्ष्म भावना है । वी वॉन्ट पॉवर एंड सेफ्टी आल्सो । शक्ति चाहिये प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष ।
शरणागति अद्भुत है अपने ही भजन भाव को सत्य मान रमा हुआ ही रहा जाये ।
श्री कृष्ण की शरण में पहुँच कर वस्तु भी संसार में लौटे तो उसे प्रसाद कहा जाता है , ऐसे ही सच्चे प्रेमी शरणागत को संसार "सन्त" मानता है ।
जिसे संसार में सार ना मिला , संसार को उन्हीं से सदा सार मिला ।
पुष्प कभी भगवत् अर्पण होकर अपने टूटने से पहले के जीवन में नहीँ लौटता ,
चरण शरणागति के पुष्प रूपी हृदय हो ... कोमल, सुंदर, सुगन्धित ।
अपने बाग़ की शान और पौधे की सुंदरता का सार होने पर बाग़ से छूटे बिन हरि चरण में नहीँ जा सकता पुष्प भी । वह टूटना ही जीवन का सार्थक रूप है जो सुगन्धित कर हरि चरण में सेवा अवसर दें ।
जिसके दोनों हाथ रिक्त है , शेष कुछ नही चाहिये उसे , वह पुकारे नेत्र बन्द कर और आलिंगन अनुभूत करें । जीवन में भगवत् अनुभूति भी सूक्ष्म से सूक्ष्म कामना के ना होने पर प्रकट होती है ।
कहते हमें सब है हमें कुछ नहीँ चाहिये परन्तु सर्वता से सम्पूर्णता सार ग्रहण कर हर रस रूपी सार को हरि हेतु तैयार नही करते । पुष्प ने मिट्टी , पौधे , पत्ती और तो और काँटों से भी सुंदरता को खेंच लिया है । फिर अर्पण होने योग्य बना है । पुष्प सम जीवन होने पर स्वतः कोई आपको माला में पिरो कर अर्पण करेगा । अतः जीवन के सम्पूर्ण सार को नित्य पहले हरि अर्पण कीजिये , कर्म योगी कर्म करके अर्पण करता है जिससे उसमें अहम् शेष रहता है । प्रेमी पहले अर्पण करते है जीवन और श्वांस फिर कुछ करते है और जो करते है स्व हेतु नहीँ करते । उनका अपना शरीर पोषण अपने प्रियतम प्रभु को अर्पण रहता है ।
सत्यजीत "तृषित"
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