लेन-देन 1 । तृषित
लेन-देन
ईश्वर के जगत रूपी स्वरूप को जीव दे सकता है(सेवा) ।
जगत के ईश्वर स्वरूप (जगदीश्वर) से जीव केवल ले सकता है (प्रीतिरस)। अर्थात् जब जगत से लिया जाता है तब वह दाता ही है ... जगदीश्वर ।
देना , यह भाव ही प्रेम है । लेना न हो । अपने प्राणधन को रससुख देना हो ।
जगत रूपी व्यापक ईश्वर से जीव प्रेममय हो देने की कला समझ सकता है ।
परन्तु जगत में सब लेना चाहते है , देना यहाँ है ही नहीं । देना ...केवल प्रेमरस में है । अपने प्रेमास्पद सर्वस्व सुख देना । (जीव का माना हुआ और जाना हुआ सर्वस्व प्रभू का ही है , जीव की ओर से केवल सेवा-प्रेम है ...जो वह अपनत्व जहाँ होता है वही दे पाता है)
देने का ही स्वरूप श्रीसर्वेश्वर है ।
ईश्वर रूप भी उन्हें दिया जा सकता है परन्तु तब वह ही तृषित हो तब ही । क्योंकि देने वाली स्थिति प्रीति की सेविका है और नित्यप्रिया का प्रीतिविलास ही प्रियतम की तृषा है अर्थात् जिसे भी देना है उसे ...प्रियतम को प्रिया सँग देना होगा । गाढ रस-लोलुप्ति और सरससुधानिधि को जीवन देना होगा । दिया हुआ वह जीवन उनकी सेवा होकर परावर्तित होकर भीतर सेवार्थ लालसा में भरी सेवा-आतुरता में भीगी किंकरी हो उठेगा । किंकरी को श्रृंगार विलास को भाव-श्रृंगार देना है । और युं देने की क्रीड़ा कभी विराम ना लेगी परन्तु निज प्राणों को निचोडकर भीतर भरी सम्पूर्ण वासना श्रीरसिक युगलसुख में डुबोनी होगी ।
जिस भाँति जगत की हर वस्तु रज होती है फिर कोई स्वरूप लेकर फिर रज होती है परन्तु सम्पूर्ण रति-रति मिटाने में कई जीवन चक्र खेलने होते है । वैसे ही भीतर की स्थितियां भी विशुद्ध होकर सेवा होना चाहती है मिटाना चाहने पर वह रूप बदल-बदल कर आती है । जैसे वासना लोक में होने पर जीवन का खेल ही बिगड़ जाता है वही वासना प्रियतम को सुख देने की ओर बहने लगें तो वह उपासनाओं की परिधि लाँघ भावनाओं की वर्षा में अपने युगल को रिझा रही होती है । अर्थात् दोष भी मिटाने से उत्तम है उसे सदुपयोगिता में लेकर मुक्त किया जावें । सो जीव देना नही चाहता वरण जगत् में अपनापन जहाँ है वहाँ जीवन देने को आतुर हो उठता है । *प्रीति का अर्थ है प्रेमी द्वारा प्रेमास्पद हेतु सजाया सुख विलास- सेवा विलास - रस विलास और ऐसे अनन्त विलासों का नित्यवर्षण* । प्रेमी को प्रेमास्पद का वह श्रृंगार रचना होता है जो ईश्वर भी कल्पना ना कर सकें (विधाता की विधि जिसे जाने वह प्रीति नही होती) सो प्रेमी को देना सीखना नही होता वह तो अनन्त को रस दे रहा होता है प्रेमदान से । और नित्य प्रतिपल उसमें एक ही ललक झुलस-हुलस रही होती है प्रेमास्पद का गहनतम सुख । (लौकिक माँ अपने शिशु को इतना प्रेम देना चाहती है कि बार बार कह उठती है तू तो मेरा कान्हा है अर्थात् उस माँ को बालविलास कान्हा सम वांछित होता है वह शिशु को रस देकर लालजू ही पाती है और यह एक भक्ति ही है परन्तु अविद्या में खेली प्रीति होने से वह प्राकृत खेल भर रह सकती है और सत {चेतन} का सँग कर खेलें खेल में अप्राकृत लीला नित्य बह रही होती है ।)
जगत और ईश्वर का द्वेत भी (द्वंद) हमारे ही भीतर है । मूल में रचना और रचनाकार एक है ।
जगत की ही चाह से जगत होकर वह है तो जगत की ही सेवा से वह होकर वही ही जगत हो जाएं इसलिये जीव को जगन्नाथ की उपासना वांछित है । जगन्नाथ के सेवासँग से जगत् से उपाधि सुलभ है । जगत् में भगवत भाव होते ही वह जगदीश्वर जगन्नाथ हो उठता है और अनन्त जगत जगन्नाथ में समा जाते है । तृषित । क्रमश:
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