भजन उच्चाटन का निदान - तृषित

किन्हीं ने निवेदन किया कि भावभजन से जो उच्चाटन रहता है वह कैसे छुटे ?
अपना कपट कैसे गले ??
भजन से विचलित स्थिति होने पर  क्या किया जावें ।
मानिये प्रकट अहेतु कृपा से किन्हीं को श्रीजी का अनुभव मिला ..फिर वह रस भंग हो गया और वह स्फूर्ति कितने ही प्रयास से लौट नही रही । प्रथम तो वह लीला स्फूर्ति कृपासिद्ध है और झलक भर इसलिये आती कि उसकी नित्य स्थिर प्राप्ति हेतु जीवन निर्मल हो सकें । क्योंकि अपनी ओर से अभी विषय आदि में अनुरक्ति हो सकती है वह स्फूर्ति केवल यह बताती है कि सब छुट इस स्थिति में नित्य होने का साधन चाहो । वह स्थिति स्थायी जब तक भी नही रहती जब तक कुछ बाह्य सेवाभार शेष होवें । मानिये आप किन्हीं से कोई आवश्यक वस्तुएं मँगावें उसमें वह कुछ भुल जावें तब आप पुन: उन्हें भेजेंगे । ऐसे ही स्थिर विश्राम जब मिलेगा जब मिला हुआ खेल सम्पुर्ण सदुपयोगिता से निर्वहन किया जावेगा ।
भाव भजन की स्फूर्ति भंग होने पर उस विलाप शक्ति को थाम कर प्राप्त मण्डल की सेवा हो जाने पर फिर विश्राम स्थिति अर्थात्  भाव स्फूर्ति प्राप्त होती है । बाह्य परिमंडल की दशा से स्पष्ट है कि सेवा की माँग जितनी है उतनी हो नही रही ।
स्फूर्ति भंग काल में परमार्थ प्रकट हो और जो भी सुलभ होवें सहज सेवा हो और उस सेवा में भावस्फूर्ति प्रकट होने की कामना भी ना हो । सम्पुर्ण अपनी लालसा होने पर भी स्फूर्ति भंग होने का एक ही कारण मानिये अभी इहलौकिक सेवा शेष है ।
जैसा कि प्रसिद्ध रसिक दर्शन हम सभी करना चाहेगें परंतु स्थानों के सेवकों के दर्शन के प्रति हमारा हृदय उतना द्रवित नही होता है भले वह 8 घण्टे भजन ना करते हो परन्तु श्रीयुगल स्वरूप और भजनमय सन्तों और तथा गौ आदि के प्रति 8 घण्टे से अधिक सेवामय होते है । (रसोई सेवा आदि) न्यूनतम सेवादार के प्रति आदर प्रकट ना होने तक सेवामहिमा प्रकट नही होती और सेवा महिमा अभाव के कारण मिली हुई सेवाओं का अनादर होने से भावस्फूर्ति का संगम प्रकट नही होता । सम्पूर्ण प्राणों से सेवा हो जाने पर स्थिर भाव स्फूर्ति रह सकती है ।
अगर विधानत: निवृति (वैराग्य) प्रकट है तब सेवा चाहने पर भी वह आपकी निवृति को भंग नही करेगी ।
हम गृहस्थ साधक व्यर्थ विरक्त होने का अभिनय करते है उनके खेल में प्रवृत्त होने पर आपकी स्थिति सहज सिद्ध रहेगी । तृषित ।
भजन उच्चाटन का निदान है *सेवा*

जब तक जीवन के द्वार पर कोई याचक है उसकी सेवा होनी चाहिये

स्थिर भजन होने पर वह स्वयं स्तम्भित स्थिति देते है अर्थात् भोजन तक की आवश्यकता गलित हो जाती है । जब अपने भोजन का श्रम है तब प्राणी मात्र की सेवा का भी श्रम हो ।
फिर खुब स्वस्थ भजन बनेगा । सेवा होकर देखिये ।

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