अप्राकृत वृन्दावन । तृषित

बुकिंग करा कर वृन्दावन आना श्रीवृन्दावन को प्राकृत समझना है । जिन्हें नित्य रस में डूबना वह कुछ सुविधाओं का जोखिम उठाकर धाम आश्रय चाह्वे ।
कृपा को अवसर दें खेलने का । (जब कोई विवाहिता निजजननी के पास जाती (पीहर)वह वहांँ की उपलब्ध व्यवस्थाओं पर विश्वास कर कोई सुविधा साथ लेकर नहीं जाती)

( यह केवल एक भावना है । जरुरी नही सभी यह मानें क्योंकि हो सकता है इस बात को मानने पर आपको खुलें आकाश में रात गुजारनी पडे ) तृषित ।

अभी अपनी व्यव्स्था अनुरूप ही सब चलता रह्वे । (हतप्रभ न होवें)

पर इसे समझ कर लीलावत खेलने पर अपनी अधमाई की ही सेवा हम करते ना कि नित्य विपिनराज की यह स्मृति रहेगी ।

शरीर के सुख के खेलों को भी मन्दिर की सेवा-सफाई  आदिवत खेलते रहने से मन्दिर या कुँज सेवा अनुभव रहने से अपनी ही देह के सुख युगल कुँज की सेवा अनुभव होगें ।
देह में अपनत्व मिटते ही भौतिक विलास होने पर भी रुचिकर ना रहेगा ।

प्रेमी को प्रेमास्पद सँग भीषणतम स्थितियों में भी प्राणतम सुखद होता है ।

                  ...ऐसे रसिकों का चरितगान और सँग हम सभी करते है जो दृढ श्रीधाम आश्रय से रस लेकर हमें भी पिला रहे होते ।

मोहे एक भावुक सखी स्थाई वास के हेतु पूछने लगे
उनके प्रति निवेदन था यह कि सभी सत-रज-तम गुणों के प्रभाव से छुटकर मात्र प्रेमी होकर आश्रय लेंगें तब ही वृन्दावन वास अनुभव होता है ।
हम अभी बाहर बहुत बँधे सो भीतर उतर नही पाते । बाहर की बहुत माँग रहती है हमें ।
अगर त्रिगुणपाश से छूटकर युगल सुख की सेवार्थ वास लिया जावें तब ही सहज प्रेमियों का भी वास बनेगा । युगल के सुख की सेवा में परायण भी त्रिगुणपाश से छूटने वाली स्थिति ही होती है ..प्रेमी ही अपने लिये खेल नही खेल रहा होता वह सेवक है शेष में अपने लिये जो खेल है वहाँ सभी दासता से भंग ऐश्वर्य-पथिक है अर्थात् सेवक का खेल स्वामी को सुख देना चाहिये परन्तु प्रीति अपनी देह आदि तक रहने पर स्वामी से प्राकृत सुख भर की सेवा चाह भर रहती है । विधान का आदर करना ही प्रेमी का मंगलमय जीवन है ।

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