ज्ञानाध्यास । तृषित

*ज्ञानाध्यास*

श्रीधाम की करुण शीतलता से साधक में भजनसिद्धि का भी अहंकार नही होता है क्योंकि श्रीधाम से बाहर वह भजन स्थिति सुलभ नही रहती सो भजन श्रीधाम कृपावत् मान्य होने से अति सघन भजन स्थिति भी सहज कोमल मधुरताओं में डूबी होती है ।
शेष स्थिति में साधक जैसे ही अविद्या से विद्वता की ओर चलने लगता है तब वह ज्ञान के भार से कठोर हो सकता है जबकि विद्या का सहजतम समावेश होने पर विनय बढ़ना चाहिये । विद्वता का पर्याय विनय है ना कि कोई प्रमाण-पत्र । शेष से पृथक् एक अक्षर विशेष का बोध होने से स्वयं में विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) का अनुभव हो सकता है । स्वयं में शेष से विशेष ज्ञान का अनुभव होने से जो भावना प्रेम पथ पर आवरण बन जाती है उसे हटाना अति दुष्कर है क्योंकि वह आवरण भीतर है और वह प्रिय है  ...एक विशेषण अनुभव है । जबकि ज्ञान प्रेम में तदाकार ना होवें तब तक वह अज्ञान ही है । सम्पुर्ण ज्ञान प्राप्ति से अपनी न्युनतम स्थिति का दर्शन हो जाना चाहिये बोध वही उत्तम है जिससे अपनी स्थिति का शोधन अनुभव हो सकें । निर्मल दर्पण (ज्ञान) अपनी मलिनता हटाने भर उपयोगी है । जब विशुद्ध ज्ञान का विशुद्ध प्रेम में संगम हो जाता है तब प्रबल दासत्व प्रकट रहता है अर्थात् ज्ञान वह है जो दैन्यता(विनय) को पोषित करें । तृषित । ...कैवल्य प्राप्ति की आन्तरिक स्थिति ऐसे है जैसे सागर में बिन्दु का प्रवेश ..सो ज्ञान की गहनतम स्थिति भी गहन व्यापक ब्रह्म सुधा में एक बिन्दुवत अनुभव है । विभु से एकत्व का एकमात्र सुत्र अणुता प्राप्त होना है ।
वैष्णव पथ में महावैष्णव आचार्यस्थितियों में सम्पुर्ण ज्ञान होने से सम्पुर्ण भक्ति प्रकट है  ...वैष्णव पथ में ज्ञान भगवान शिव - नारद - सनकादिक - व्यास - शुक और श्रीरामार्चणाचार्य श्रीहनुमान जी से विशेष नहीं हो सकता ।
तदपि सर्वस्व से उपाधि प्राप्ति सँग ..नित्य भजन समाधि प्राप्त साधक में अगर किंचित् बिन्दु भी स्वयं की विशेषता का अनुभव है तब एक व्यर्थ का आवरण ही सँग है और उसके भंग होने से पूर्व जीवन प्राप्ति दूभर होती है सो ऐसे अति बुद्धत्व साधकों में एक चिडचिडाहट रहती है क्योंकि वह प्रयासों से भी आवरण भंग नही कर पा रहें जबकि समानान्तर उसी काल में वह आवरण को ही बलिष्ठ कर रहे होते है । (साधक को भाव स्थिति की सुरक्षा हेतु अभिनयवत् अन्य से एक मर्यादात्मक सँग रखना उचित है परन्तु वह कठोरता केवल अभिनय हो । अगर वह अभिनय ना होकर तनिक भी वास्तविक भाव आहुति सँग अभिव्यक्त है तब प्रपंच से मुक्ति प्राप्ति नहीं हुई है । एक बार प्रपंच छूटने पर शेष जीवन केवल अभिनयवत् प्रपंच रहता है । क्योंकि वास्तविक ज्ञान विनय देता है सो कठोरता केवल अभिनय हो सकती है । (विपरित अभिनय स्थितियों से हृदय द्रवित होकर करुण होता जाता है ) तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय