स्व धर्म की निजता । तृषित

स्व धर्म की निजता
धर्म बाह्य रूप से सामूहिक अभिव्यक्ति प्रतीत होता है । और समूह की सामूहिक भावना को ही धर्म स्वीकार किया जाता रहा है । बाह्य रूप से एक लगने पर भी वास्तविक धर्म सर्वत्र भिन्न है । अर्थात् पुष्प और कांटा पत्तियां आदि एक लता पर होने पर भी मूल में भिन्न स्वरूप और उसी के बाह्य परिणाम से बाह्य रूप से एक रूप दर्शित है ।
मूलतः धर्म नितांत वह सर्व धर्म जो बोध में हो उनके सभी के उतर जाने पर ही दर्शित होगा । स्व स्वरूप और स्वभाव बोध सहज हो नही पाता क्योंकि स्व के सन्दर्भ में व्यक्ति कभी उतरता ही नहीँ अतः बाह्य समूह की धारणा को वह अपना धर्म कहता है । बाह्य से एक होने पर भी मूल में भिन्नता बनी ही रहती है । अतः बाह्य धर्म का विघटन होता रहता है , प्रत्येक व्यक्ति अपने सामूहिक धर्म का त्याग और परिवर्तन चाहता है जिसके मूल में यह है कि मूलतः धर्म सामूहिक है ही नहीँ । शास्त्र स्वधर्म शब्द कहता है , लौकिक और नाना बाह्य आवरण से वास्तविक धर्म प्रकट नही होता और जब तक स्वधर्म से व्यक्ति का परिचय न हो वह विचलित रहता ही है । धर्म कर्त्तव्य की शृंखला है , अधिकारों का समूह नहीँ । सर्व कर्त्तव्य पूर्ति पर वह कर्त्तव्य जो आपका हेतु बना हुआ है वह आपका स्वधर्म है जो आपको लेकर आया है ।
स्वभाव या स्वधर्म एक ही विषय है , अधिकांशतः बौद्धिक जीवों को जीवन के उत्तरकाल में स्वभाव की तनिक सी झलक मिलती है जब वह जीवन को एक फ़िल्म की तरह चला कर अपना जीवन चरित्र में एक नित्यभाव को पकड़ पाते है अन्यथा भगवत्कृपा या संतकृपा से स्वभावबोध हो सकता है ।
जगत् में सभी एक दूसरे पर स्व जीवन शैली थोपना चाहते है , जीवन शैली तो उनका ही धर्म नहीँ वह तो स्थान - स्थिति से प्रकट होती है और बदल सकती है , फिर भी मानव अपनी जीवन शैली मानव ही नहीँ आसपास के दृश्य पर लागू करता रहता है ।
स्वधर्म के दर्शन कराने हेतु ही सद्गुरु रूप ईश्वर का अवतरण जीवन में आवश्यक है । परन्तु स्वधर्म ना कि अपने धर्म का अतः यह एक चेतन स्वरूप ही कर सकता है कि कुछ ऐसा करें कि आपकी वास्तविक्ता प्रकट हो जावें । अपने भाव में वरण करके भी सद्गुरु आपके निज स्वरूप और निज स्वधर्म को प्रकट होने के अनेक अवसर प्रकट करते है । वन्य जीव कहने से सभी पशु एक धर्म में लगते है परन्तु वन में तो हिंसक और हिरण खरगोश जैसे भी जीव और फिर सब की उसमें भी उपप्रजाति । मकड़ी कहने से समस्त मकड़ी एक धर्म में लगती है परन्तु आंतरिकता में न्यूनतम भेद है जिससे बाह्य विधि एक सी लगने पर भी आंतरिक भिन्नता है ।
यह स्वधर्म प्राप्त है , कृपा से है । ना कि स्व इच्छा से कुछ भी पहन लिया गया वस्त्र रूपी जीवन सिद्धान्त स्वधर्म है । जिस भी धर्म में अहंकार का पोषण हो वह अभी खुला ही नहीँ अथवा दिखा ही नही । वहां अज्ञान है , अतः स्वधर्म ईश्वर द्वारा मिला है और रस विचित्रता से बाह्य एक होकर आंतरिक पृथक् है परन्तु वह पृथकता एकता के सृजन हेतु है ना कि खण्ड-खण्ड करने हेतु ।
यहाँ पुनः वृक्ष को देखें , वह पत्र-पुष्प-फल- शाखा आदि से एक रूप है शाखा अगर फल को देख फल होना चाहें अथवा पत्तियां पुष्प को देख सुगन्धित होना चाहे सुंदर होना चाहे तो यह धर्म नही होगा , धर्म कहता है स्व को देखो पत्ती अपने धर्म को निभा लें तो ही पुष्प अपने धर्म को निभाएगा और यह पृथकता से वृक्ष की एकता रहेगी । ऐसा नही पुष्प का पत्तियों से , शाखा से सम्बंधन नहीँ , बाह्य एकता में कर्त्तव्यगत विभिन्नताएं है और वही धर्म है जिससे बाह्य एकता और गहरी हो रही है । अतः प्राप्त वास्तविक दायित्व से आंतरिक भिन्न हित भी महकेगा । आंतरिक भिन्न हित में बाह्य सामूहिक जीवन भी विकसित होगा ।
सूर्य का अपना धर्म है , ईश्वर प्रति रज अणु को सूर्य या उससे भी दिव्य अलौकित करने में समर्थ है जिस तरह रज में प्रति अणु का निज स्वभाव भिन्न है वैसे ही रज अणु सूर्य हो तो इन कोटि सूर्य का बाह्य एकत्व दर्शन होने पर आंतरिक भिन्नता रहेगी ही । वरन् एक से दो होने की आवश्यकता ही नही रह जाती । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम ।।

स्वधर्म की निजता भाग 2
धर्म मुक्ति असम्भव है । हाँ स्वभाव उपलब्धि धर्म का मूल स्वरूप है परंतु स्वभाव उपलब्धि प्राकृत और अप्राकृत भिन्न स्वभाव है । वायु से जल की उत्पति होने पर भी जल और वायु स्वभाविक भिन्न है । जल की आवश्यकता पर वायु से पूर्ति नहीँ होती ।
अतः निज स्वभाव जब अन्यत्र अनछुई वस्तु है तो उसे प्राप्त किया ही नहीं जा सकता । स्वभाव प्राप्ति की व्याकुलता ही अग्नि को प्रकाश बना निज वस्तु का श्रृंगार करती है भगवत कृपा से ।
बहुत से धार्मिक संगठन यह सिद्ध करना चाहते है कि धर्म कोई संगठन है । यह धर्म के स्वरूप के प्रति उनकी उदासीनता ही है । धर्म त्याग भी नव सीढ़ी पर ही तो ले जाता है तब वह सीढ़ी धर्म होती है । कृष्ण शब्द में कृष भू वाचक है कैसी भूमि भाव की "ण" आनन्द है  .... भाव की धरती पर ही यह कृष्ण रूपी आनंद प्रकट है तब भाव ही श्रीकृष्ण का धर्म हुआ । जीव का भाव नहीं ... श्रीकृष्ण निज भाव पर प्रकट आनन्द है ।
जीव की भावना की सिद्धि का नाम प्रपन्च है । जो जैसे जिस भाव से भजता है वह वैसे हो जाते है यह सूत्र ही उनका स्वभाव त्याग जीव भाव से जीव भाव की सिद्धि करना है । श्रीहरि की स्वभाव उपलब्धि अवस्था ही श्रीकृष्ण है । जहाँ उनके निज भाव का पोषण हो रहा है , क्योंकि उनके भावराज्य का प्रति अणु चेतन रूप कृष्ण सुख का ही हेतु और धर्म धारण करें है
इसी सम्पूर्ण कृष्णसुख रूपी धर्म की सम्पूर्ण साकार श्रीविग्रहा श्रीराधा है । सम्पूर्ण श्रीकृष्णविलास सुख उनका निज स्व धर्म है ... स्वभाव है । सम्पूर्ण श्रीकृष्णसुख की सिद्धि में सम्पूर्ण निज सुख से उपाधि की वह ऐसी अवस्था है कि इस धरा का अणु मात्र अनुभव कृष्णसुखेच्छा से लोलुप्त चित्त को हो सकता है । परन्तु श्रीकृष्णसुखेच्छा की लोलुप्ता पर प्राप्त स्वभाव स्थिति सर्वदा नविन होगी ।
लोक अथवा दिव्य लोक पृथकता की आवश्यकता नवीनता हेतु है । जीव की निज मातृ शक्तियों से भी पृथक स्थिति है जिसकी सिद्धि पर ही जीव स्वभाव को प्राप्त कर सकता है ।
विचार कीजिये लीला में सभी पात्र आवश्यक है , श्रीरामलीला में अगर वैकुण्ठ से गिरे यह पार्षद इतनी तपस्या से अपना स्वभाव स्वीकार कर जय-विजय रूप अपने स्वभाव को दृष्टव्य कर पाते तो कैसे लीला का विकास होता । जहाँ समस्त वानर श्रीराम के अनुगत भाव सिद्धि में है । वहीँ रावण जो कि स्वभाव से है वैकुण्ठ पार्षद परन्तु विस्मृति से है राम के विरोध की स्थिति में । और यही स्थिति तत्क्षण उसका धर्म भी है , श्री भगवती सीता अनुकम्पा कर स्वभाव लालसा जाग्रत कर रावण आदि को उनका श्रीहरि से अभिन्न स्वरूप दर्शन करा दे तो लीला होगी कैसे ??
लीला विकास को ही विस्मृति है , यहाँ एक बात और श्रीराम की विपक्ष की स्थिति तक जब दिव्य धाम में उनके नित्य पार्षद है तब शेष सभी पात्र क्या दिव्य धाम से बाहर के हो सकते है ।
नाट्य शास्त्र की निपुणता ही जगत का विलास है ।
और निज कला का विकास ही भाव राज्य का विलास है । श्री सर्व कलानिधि श्रीश्यामसुन्दर की सर्व कला लालसा ही कामकला का स्वरूप है । और श्री हरि की सर्वकलामय स्थिति श्रीराधा से अभिन्न स्थिति युगल स्वरूप है । श्री राधा ही षोडशा से सम्बोधित है । चन्द्र की सोलहवीं कला की परिपूर्ण अवस्था वही है । श्री कृष्ण इस कला में ही प्रवेश को निज प्रकाश त्याग माधुर्य पथिक हो अमावस्या से पूर्णिमा पर्यंत समस्त आलोकता श्रीप्रिया की ग्रहण कर प्रकट और उत्तरोत्तर माधुर्यमय होते जाते है ।तृषित।। जयजयश्रीश्यामाश्याम ।।

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