तृषित भाव बिन्दु
1
वैष्णव वह है जो श्रीहरि की सरसता का उपासक हो । जिसमें उनके सेवात्मक सँग से सरसता स्फुरित हुई हो । श्रीहरि का सेवात्मक अनुगमन ही जिसका प्राण तत्व हो वह वैष्णव है ।
अर्थात् सर्वेश्वर श्री उपास्य स्वरूप से तन्मय स्थिति ही उपासक का वैष्णव स्वरूप है । *तृषित*
2
सहज नमस्कार बढा व्यापक होता है , उसमें भीतर केवल नमन भरा होता है नमस्कार का अर्थ द्वंदों से उपाधि हेतु स्वयं की पृथकता को श्रीचरणों में गलित करना है ।
अर्थात् नमस्कार वही सच्चा है जो नित्य भीतर है । किसी के प्रति नमन और किसी के प्रति भर्त्सना का अर्थ है कि जो नमन हुआ उसमें स्व को त्यागा नही गया ।
वरण एक बार जो डाल टुट जावे (अहंकार छुट जावें वह उठ नही सकता ) ...सो एक बार जो डाल टुट जावें वह जुड नही सकती
नमस्कार अहंकार को तोडने का साधन है
अगर सत्य में घटेगा और नित्य भीतर भरा होगा तो डाल की भाँति जीव उठ ना पावेगा
सो सहज नमस्कार वह है जिसमें भेद गलित हो गया है और नमस्कार नित्य भीतर भर गया है । भक्त को नित्य भगवान ही अनुभवित है और नित्य दास को नित्य स्वामी का ही सँग भर है । *तृषित*
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी
3
जिस भाँति दास को स्वामी के सँग से रोमांच और उन्माद रहता है ।
उसी भाँति सहज दास के सँग से स्वामी को भी भावोद्रेक (उफान) होता है ।
दास अगर नित्य दास है तब ही वह सहज दास है और दास में दासत्व भावना आन्तरिक संस्कारों से सहज ही भरी है । जो कि स्वामी सेवा और स्वामी सुख चिन्तन से इतनी प्रबल रहती है कि नित्यानन्दित स्वामी का सहज आनन्द भी दास की सहज सेवाओं की लालसा के आनन्द से हल्का होता है । अर्थात् दास में दासत्व की अति सघनता होती है जिसे केवल स्वामी ही भीतर अनुभव कर रोमांचित हो पाते है और दास के सुख भर को स्वामी रहने की क्रीडा भर में होते है वरण दास की सहज सेवाप्रीति से उनका हृदय वंदन में भर रहा होता है ।
( सहज दास का सहज सँग दासानुदास होकर ही सम्भव है )
नित्य दास में केवल दासत्व भर शेष होता है अपने निज स्वामी के सँग भर । सहज दास का सहज सँग केवल सहज स्वामी ही लें सकते है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी
4
श्रीहरि का विशेष प्रीति-प्रहार *कृपा* कथित है
वैसे ही जीव का प्रबलतम शस्त्र केवल *लालसा* (लोलुप्ति-तृषा) है
लालसा की विजय जब ही है जब वह नित्य कृपा से पराजित रह्वे ...
तृषित
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी
5
जीव केवल आनन्द चाहता है
और श्रीप्रियतम करुणा में भिगोना चाहते है
हमारी माँग आनन्द की ही है । मिलती करुणा ही है । विशुद्धतम आनन्द भोग्य नही अपितु भोक्ता है ।
करुणा आनन्द का पात्र है । करुणा रहित आनन्द सूखा आनन्द है । करुणा सँग आनन्द गलित-ललित-मधुर आनन्द है ।
आनन्द सँग में आनन्द का भोग ना करने का क्षणार्ध अनुभव करुणा में भिगोने लगेगा । करुणा ही आनन्द की रक्षक-पोषक और श्रृंगार है । आनन्द की शक्ति करुणा है । सो आनन्द की माँग होने पर करुणा का सँग मिलना अर्थात् आनन्द हेतु पात्रता का निर्माण है । करुणा सँग आनन्द वैसे ही है जैसे वर्षा से भीगी धरा पर नाचता मयूर । करुणा भीतर होने पर हृदय द्रवित रहता है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
6
भाव पथ की इमारतें थोडी विचित्र है । इसमें स्वयं को शिखर पर पाना जो चाह्वे वह प्राकृत स्थिति है । इस भाव रस में बनने वाली ईमारत एक सरोवरवत् (कुण्ड) है जिसकी सबसे निचली पेडी होना ही भावरस में डूबे रहना है । हम रस भी चाहते और छुटकर उसका निरूपण भी सो रस सरोवर की वह तली नही छू पाते । निर्मल सहज सरस सरोवर की वह निचली पेडी कभी बाहर होती ही नही । जिस भावसरोवर की तली डूबे बिना दिखाई देती हो वह अप्राकृत नित्य सरोवर नही है । यहाँ नित्य नीचे उतरना है और भावरस रूपी सरोवर की तली कितना ही डूबने या भीतर उतरने पर और गहनताओं में अछुती रहेगी । सरस गलन से निम्नतर होने की यह लालसा ही भाव साधक के लिये नित्य लीला सरोवर है ।
अर्थात् यहां गलित होते रहना ही वर्धन है । कैन्कर्य वर्धन हो ...सेवा-वर्धन हो ...दैन्य वर्धन हो । जैसे भावना सरोवर की सीढ़ी से भीतर तक उतरी जा रही हो । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
7
मन में अपनी माँग (संकल्प-विकल्प) ना होने पर वह नित्यधाम (विधान) आश्रित है ।
जिसके पास अपनी पृथक् रूचि नही वह ही शरण हो सकता है । क्योंकि पृथकता की रुचि ही संकल्प-विकल्प से भरे मन को कल्पित करती है । और आपने सुना ही होगा कि उन्हें अमनिया पदार्थ निवेदित होते है जिसे मन ने ना छुआ हो ।
8
विवर्त विलास के इतने विलास है कि विलासों में कितना विवर्त हुआ है यह विवर्त हुये स्वरूप भी नहीं जानते है ।
नित्य सेविका ही मूल स्वरूप (श्यामाश्याम) के विवर्त की महिमा को समझ निज प्रीति संयोग से सहज स्वरूप पहचान पाती है
9
एकान्तिक होते ही नामभजन के आश्रय में उस एकान्त को सेवा देकर भजन की मधुरता से भावुक को आहार लेना चाहिये । तृषित ।
आवश्यक एकान्त प्राप्त है सदुपयोग से वह गहन होता रहेगा ।
10
कल्पना अनुभव भी नही कर सकती रस रीति का हिंडोला कहाँ तक झूम रहा है यह हिंडोला अनन्य श्रृंगार है विलासित श्रीयुगल में श्रीयुगलविलास का ।
11
प्रेमी को सर्वता से एकान्त होने पर ही निज प्रेमास्पद से रमण अनुभव हो सकता है । गहनतम-मिलन अतिगहन एकान्त से ही खिल पाता है । पक्षी-गिलहरी-हिरण--खरगोश एकान्त में ही खेलने आते है अर्थात् सहजता सर्वता से छुटने पर झूम उठती है ।
लोक में भी प्रेमी-प्रेमास्पद की निजता एकान्त चाहती है ।
इस एकान्त शब्द को एकान्त कहना अध्यात्म है और इसे प्रेमास्पद सुख हेतु निजता मानना प्रेमरस है । तृषित ।
जीव का दैहिक शयन भी निजता की अपेक्षा करता ही है ।
12
प्रेम में डूबने के उपाय खोजते रहोगे तब इतने तूफां खुद पर माँगने होगें जितने सदियों में ना उठते हो
डूबने की ललक होने पर हर साँस और डूबाकर जाएगी ।
पर रसास्वादी होना रस का अनुभव पीने के लिये पृथक् होकर रहना ही इस रस वर्षा में पिघलने नही देती ।
और पिघलते रहने पर पिघलने के रस का अनुभव रस होकर होता है । जैसे सागर में बिन्दु होकर लहरों की उमगते झकोरे (भीतर बिन्दु होकर)
डूबने पर डूबना ही डूबना है
डूबने पर तर्क रखने पर डूबना छूटने से तर्क की पिटारी ही हाथ लगती है । तृषित ।
13
भावुक के भाव को केवल निजता में पोषण मिल पाता है
शेष जन भावुक की भावना को समझने में असमर्थ होने से उसे पागल-व्यसनी-भोगी-रोगी कुछ भी मान दया कर ही सँग करते है । भावुक केवल भाव की नित्य उपस्थिति (हियोत्सव) अपेक्षित करता है जो कि सम-भावुक ही समझ सकते है ।
सम भावना ही सहचरी है । परन्तु साहचर्य देने का लौकिक व्यापक अभाव है क्योंकि लेने का ही स्वांग है ।
भाव-अनुकुल साहचर्य देना ही सखी होना है । तृषित
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