विहार - तृषित
*विहार*
श्रीयुगल-विहार ...युगल के सुख की गाढ़ता रूप सघनता रहती यहाँ । सभी भाव और स्थितियाँ नित्य है । श्रीयुगल हिय निभृत रस में नित्य रह्वे । श्रीयुगल में परस्पर हियात्मक मिलन नित्य निभृत रस है । श्री सखियों के सुखार्थ निकुंज लीलाओं में श्रीयुगल निज भाव श्रृंगार झरण सखियों सँग अनन्त गुणित मधुरातीत मधुर भी नित्य रह्वे । सभी भाव श्रीयुगल रस रूपी इस कुँज की अनन्त-अनन्त भावनाओं के समूह में नित भरी रह्वे । यहां सखी-सखी हिय में भरी रससेवा रूपी भावनाएं अनन्त कुँज है (सुखविलास सेवा)। भाव एक कोमल फूल रूप है , कुँज में अनन्त फूलों के समूह है (अर्थात् अनन्त भावों सँग उत्सवित सेवा है) और श्रीवृन्दावन अनन्त कुँजों का समूह है ।
युगल हृदय की मधुरता को अनुभव कर जब सेवा की मधुरता इतनी सघन होंवें की उसे अन्य से व्यक्त ना किया जा सकें तब निकुंज रस है ।
यहीं मधुरतम सेवाएँ जब और सघन-सहज-कोमल उज्ज्वल होंवें और उनका आस्वादन केवल श्रीयुगल में ही स्थिर रह्वे तब वह निभृत रस है । प्रेम का अत्यन्तम एकांकी सेवा भाव निभृत सुख है । यहाँ प्रेमास्पद का सुख ही विलसित होता है , प्रेमी को अपनी भी अनुभूति वहाँ रहती नहीं । श्रीयुगल नित्य ही अतिप्रगाढ़ मधुरता में भरें है । जहाँ वह अनन्त सखियों सन्मुख भी नित्य निभृत मधुरता में है । निभृत रस श्रीयुगल का नित्य विश्राम है और वह उनके नयनों में नित्य भरा ही रहता है । वैसे ही अत्यन्तम निभृत मधुरतम निभृत-सुख में भी उनके प्रेम-विहार सुख का ही परमाणु सम्पूर्ण कुँज-निकुंज सार समूह श्रीवृन्दावन का प्राण बिन्दु है , श्रीरसविलासी प्राणयुगल का निभृत उल्लास ही उनमें भरा है और उसकी सुगन्ध-मधुरता को भाँपकर - सहज ही अनन्त सेविकाएँ उनके हृदय की अनन्त भावनाओं को प्रेमरस की सेवा देती है (श्रीयुगल से यहीं रस चहुँ ओर प्रवाहित होता श्रीविहार में)। तृषित । बाह्य सब स्थितियों से छूटकर जब प्रीति पथ पर स्वयं की सत्ता भी नहीं रहती तब कुँज-निकुंज रस-वृन्द प्रकट होते है श्रीकिशोरी कृपा से । जितना विहार यहाँ अदृश्य है उतना ही वह वहाँ नित्यवृन्दावन में नित्य ही प्रकट रहता है । एक सुख है सम्पूर्ण श्रीवृन्दावन में श्रीयुगल का उत्तरोत्तर सघन उल्लास और नित्य युगलोत्सव की नव लालसा । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
Comments
Post a Comment