जीवन , तृषित
जीवन ... ईश्वर का यह उपहार आज हमारे द्वारा दुविधा हो गया है ।
किसी से भी पूछिये क्या जीवन जीया । उत्तर में हाँ भी हो तो अवश्य अंतःकरण कहेगा ना ।
जीवन का उदय ही नही हो पा रहा , सम्पूर्ण यात्रा पूरी होने पर भी ।
नश्वर चित्त .. देह आदि को अपना मान जीवन को निज वस्तु समझता है ।
जीवन का सम्बन्ध केवल उससे है , जो जीवन स्वयं है । जीवित तप उपकरण है ... जीवन का रस सत्य में जो जीवन है , उसके ही हेतु है ।
विचित्रता है कि जो जो स्वयं जीवन है ... वह जैसा भी , मैला कुचला जीवन उन्हें दिया जावें ... अपनाते है ।
वस्तुतः जीवन की कुरूपता से उन श्री अनन्त श्री पुंडरीकाक्ष से कभी स्पर्श भी नहीँ होता । अतः जीवन के एक क्षण में सत्य के धरातल से पुकारा राम ईश्वर स्वीकार कर लेते है , तत्क्षण सम्पूर्ण जीवन की विचित्रता से उन्हें स्पर्श नहीँ होता । सत्य केवल सत्य को छूता है ।
अब जीवन को हम सब ने मिथ्या समझ लिया है और मृत्यु में भय के प्रभाव से गहन आस्था है अतः मृत्य क्षण में पुकारा नाम कुछ अधिक सत्य होता है ।
जीवन सत्य है ... यह स्वीकार करने पर , सम्पूर्ण जीवन फिर , श्री प्रभु की लीला भूमि मात्र है ...
जयजय श्यामाश्याम । तृषित
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