शब्दातीत लीला स्पर्श ..... तृषित लीला सूत्र

*शब्दातीत लीला स्पर्श*

नित्य लीला अधिकतम शब्द शुन्य । संगीत रहता पर अप्राकृत वह संगीत , यहाँ नहीं वैसा गहन । शब्दातीत होता प्रेम । उनका तो अति गहन । वह शब्द भी प्राकृत नहीं होता और उसका स्पर्श भी गहन होता है ...सर्वेन्द्रिय आस्वादनीय । संकेत शब्द अधिक होते , प्रेमी ही अनुभव करता उन लघु वाक्यांशों को । गाढ़ मधु सरोवर का स्वर घनिभूत मधु होता है ना । बात तो अपरिचितों में होती , प्रेम की अभिन्नता तो परस्पर सर्व रूप जीवन होती , आभूषण भी वार्ता कर रहे होते ...श्वसन भी , बहुत घनिभूत अभिन्न स्पर्श श्रीयुगल का परस्पर । यहाँ जो गहन स्थिति वह भजन सिद्ध होने पर अनुभव किया जा सकता , वैसा शीतल शब्द यहाँ है नहीं कहीं और वह घनिभूत मधुता को स्थायी रूप से भजन ही पकड़ पाता है  । हम भी बाते कहते वो पूरी गहन स्थितियाँ निकलती नहीं क्योंकि प्राकृत और अप्राकृत शब्द का स्वर श्रृंगार यहाँ अनुभवित हो नहीं पाता । जितना हो रस में शब्द अनुभव कम हो , । जिस भावलीला मे जितना न्यून संवाद अनुभव उतना उसका रस गहन संगठित । ऐसे कई गुप्त सूत्र , सब कहते हम सब कह देते । पर सब नही कह सकते , नही कह ही सकेंगे । यह कहने पर अनुभवित तब स्थिति भी दर्शन अद्वितीय अभिन्न सहज शब्दातीत लीला रूप होता ।

अब कोई प्रमाण भी चाहे , तो गहन लीला दर्शी अधिकतम बाह्य  इंद्रियों से मौन होते जैसे कोई विशाल वृक्ष की ऊँची डाल पर बैठा पक्षी गहनवत किसी एक दिशा में देख रहा हो ।  गहनता का अनुभव उथल-पुथल जीवन में होती ही नही । किसी भी अनुभूत मौन स्थिति का शत कोटि सम्पूर्ण परस्पर जीवनवत रस श्रीयुगल में है । यहाँ वह गहन मौन स्थिति बिन्दु मात्र ही स्पर्श हो सकती है । मौन की भी अपनी ही भाषा होती है , रस रूपी अनुभवित भजन से वह स्वभाविक मौन प्रकट होता है , भाव भी बिन्दु-बिन्दु अपने भीतर ही टपक टपक कर बढ़ता सिन्धु है , भावुक बाहरी जीवन मे रस नहीं जानता क्योंकि भीतर सम्पूर्ण अमृत जीवन भरा होता है । लीला पथिक की पहचान है वह जीवन भर बाहर अति लघु वार्ता  करता होगा , बहुत ज्यादा बाहर रस लेने वाले शीघ्र एक ही जीवन मे लालसा से संगठित आंतरिक जीवन नहीं अनुभव कर सकते , यहाँ जीवन में दुर्घटनाओं से आये मौन की बात नहीं है.... स्वभाविक सँकोच भरी गम्भीरता होती उनमें । भावलीला लोभी अति वार्ता से  संसार में पीड़ा ही पाता है , भजन रूप वह एकांतिक जीवन ही सिद्ध करना होता है जिसमें भगवदीय आस्वादन भरा है , श्रीयुगल का आस्वादन रूप नित्य लील जीवन तो अति दुर्लभ है , हम प्राकृत जीव निज जीवन का ही क्षणार्द्ध आस्वादन नहीं लें सकते वह निज आस्वादन बौद्ध है और उससे भी संगठित है वह अनुभव जो भगवदीय जीवन सँग आस्वदनीय एकता है सेवा स्वरूप में । गठित जीवन गहन और स्पंदनात्मक होता है , सँकोच भरा , शब्द लघुता का ।
सत्य यह बात तो तब लगेगी जब  नित्य निकुंज सिद्ध रसिक लीला दर्शन को सजीव पाने से  ही यह सब सहज जीवन होगा । वहाँ भाव भंगिमा विशेष है । नेत्र संवाद अधिकतम , वस्तुतः नयनों में नयन ना होने पर भी श्री युगल और सखियों में पूरी पूरी ही कनेक्टिविटी रहती है , जैसे लोक में एक कनेक्शन (वाई-फाई) आदि से कई इंस्ट्रूमेंट्स में , अतः मन प्राण की एकता भरी लीलानुभूतियाँ लोक में अभिव्यक्त कैसे हो ??
वाणी का प्रयोग गहन स्थिति में ...प्रेमास्पद को असंतुष्ट पाने पर शब्दांश भर जैसे ....प्राण ....सुन्दर ...क्षमा नाथ , क्षमा  । अति सरस् स्थितियाँ वहाँ नित्य श्रीयुगल की परस्पर । इसे समझने हेतु ... बहुत लिखित कहना भी मूर्खता ही लगता । युगल कृपा । श्री हरिदास । रसिक पद भाव को सजीव कीजिये । जब तक पद सजीव जीवन न हो पद मत बदलिये । अनवरत उसमें डुबीए और सजीव हो तब नित्य वही पद नव नव आस्वादनीय दर्शनों में डुबाता रहेगा , *तृषित* 

नित्य लीला कोई भाव विकार नही ... उसके लिये । पक्षियों के युगल के प्रेम को देखिये । तैरती मीन के परस्पर खेल को देखिये । हिरणों को देखिये , इनकी दृष्टि उठाने की लटक-झटक और चाल देखिये।  पुष्पों  के परस्पर स्पर्श और प्रेम को देखिये । भृमर की आसक्ता को देखिये । मोर को देखिये ,वह जब जब नाचें उस काल मे क्या नया हुआ वह अनुभूत कीजिये । बादलों को देखिये , कहाँ जा रहे , यह देखिये । बरसात को देखिये । नीले नभ की शांति को देखिये ।
मनुष्य को देखे तो गहन शास्त्रीय संगीत-गान , शास्त्रीय नृत्य गहरा ...सहायक  । बस ... शेष प्रपंच । फिर मनुष्य को मत देखिये । भजन में डुबीए , नित्य लीला इनसे अति गहन । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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