हमारौ बृन्दावन उर और , तृषित
वह दिव्य स्वरूप जो माया - काल में गहन डूबे हम भौतिकी जीव के लिये नहीँ खुलता ...
हमारौ बृन्दावन उर और ।
माया काल तहाँ नहिं ब्यापै , जहाँ रसिक - सिरमौर ।
छुटि जात सत - असत बासना , मन की दौरा - दौर ।
भगवत रसिक बतायौ श्रीगुरु , अमल अलौकिक ठौर ।
हमारे हृदय में श्री वृन्दावन का दूसरा ही स्वरूप विराजमान है । जहाँ हमारे रसिक शिरोमणि श्रीश्यामा कुंजबिहारी सतत विहार करते रहते है , वहाँ माया और काल की व्याप्ति नहीँ है । (यहाँ पहुंचकर) मन की अच्छी - बुरी वासनाएं और अनियंत्रित दौडे स्वयं छूट जाती है । भगवत रसिक जी कहते है कि हमें ऐसा निर्मल एवं अलौकिक स्थान हमारे श्रीगुरु जी महाराज जी ने बताया है ।
रस भाव और नित्य विहार के दिव्य स्वरूप रूपी निधि हमारी कितनी फूहड़ सी वासनाओं के कारण प्रकट नहीँ हो पाती , अपनी वासनाओं से हमें प्रेम है , वरन वह विहार नित्य प्रकट होता ही ...
अपितु कही किन्ही भावुक की भाव झाँकी पुष्प वाटिका खिल गई हो वहाँ भी हम संदिग्ध से ही भाव रखते है...
अमल अलौकिक ठौर ... इस ठौर से पहले व्याकुलता शांत होगी कैसे ... ???
--- तृषित ।। जयजय श्यामाश्याम ।।
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