अचाह की प्राप्ति , तृषित
अचाह की प्राप्ति ...
हम भगवत पथिक पथ के परिणाम में किन्ही दिव्यतम सुख लालसा में डूबे रहना चाहते है , परन्तु भोग छूट नहीँ पाते । पथिक का हृदय बहुत से संकल्पों में है , चाह है ... तो पथ भगवतोन्मुखी बह नहीँ पाता । चाह और भगवत अनुराग के मध्य में उलझी सी स्थिति भर रहती है । चाह ना हो ... यह सिद्धि है । अचाह का हृदय सत्य को जीने लगता है । वहाँ प्राप्त ऊर्जा यथार्थ में बहती है , चाह से जिस कारण हम धरा पर छुटे है वह कारण सिद्ध नही होता । अगर जल पीने की प्यास हो , और बार बार गर्म द्रव्य पिए जावे तो शीतलता की अप्राप्ति से व्याकुलता होती है , हम भूल गए हमें चाहिये क्या ? और वास्तव में हमें जो चाहिये वह चाहना भी नहीँ । बस जो हम चाह रहे वह चाहना , वह कामनाएं विराम ले । गेंद को सिखाया नहीँ जाता उसे क्या करना है ... बल्ले को भी पता होता गेंद आने पर उसे क्या करना । गेंद के भीतर कोई और चाह हो , आप ऊपर उछाले वो नीचे गिरे तो बात नही बनती । उपकरण - खिलौना - कठपुतली में किसी चाह के बिन वह सब जिस रस और सुख की सेवार्थ है कर रहे है ।
हमारी व्यर्थ चाह जिस क्षण न होगी निर्मल जीवन का उदय होगा , अचाह से ... तब कोई कहे यह निर्मल प्रेरणा अथवा स्थिति वह प्राप्त किया तो ऐसा नहीँ ... संकल्प की परिधि है ... क्या मैं यहाँ से जापान गेंद उछाल सकता हूँ । अचाह हो तो जहां जाकर गेंद गिरनी वही गिरेगी ,बस अचाह चित्त सँग उसके सँग होना ।
अतः चाह जो नही कर पाई वह अचाह करती है । हम में से कोई संकल्प नही करता , साधना नहीँ करता कि सूर्योदय हो । पर वह होता है , और होगा ... जब आप खिलौने हो गए तो खेलने वाले का सुख निश्चित है । खिलौने की हर स्थिति सुख देती बालक को , तोड़कर भी सुख मिलता है । हम जिनके खिलौने वह कभी हमारा खण्डन नही करते । युगों से हम वो सँग परन्तु हम भूल यही करते है कि उनके अनुरूप खेल नही रहे । वह हमारी गति विधि में प्रसन्न परन्तु हमारा अस्तित्व है तो कही न कही कोई उनका निश्चित सुख हमसे जुड़ा है । इस जगत में हर पदार्थ इच्छा शुन्य हमें चाहिये बस हम इच्छा शुन्य नही हो पाते तो वास्तविक प्रीत रूप जीवन उदय नही होता । दूध तेजाब का और तेजाब दूध का काम नही करता । हर उपचार की ओषधि निश्चित क्योंकि वह वही लाभ करती जिस हेतु वह है । छाछ शीतल न करें तो उसे उदर की जलन की ओषधि कैसे माने । हम विपरीत हो गए , मानिये मैं छाछ हूँ पर मुझे तेजाब अथवा विष के गुण दोष निभाने , मेरे द्वारा विष सा असर मेरे भोगी को हो परन्तु उसे पीड़ा ना हो क्या यह सम्भव । पुष्प चुभे तो भी पुष्प से वह नेह करें ... पुष्प को पुष्प होना है । तब उसके द्वारा सुख होगा । न जाने किस हेतु हमारी रचना हुई ... परन्तु हम दिन रात अपना ही पथ बना लिए । आज हम ऐसे भीषण काँटे हो गए कि हमारा स्मरण भी चुभ जाए । तो भी प्रभु को पीड़ा नहीँ । आप सब्जी में हल्दी डाले वो पीला ही रंग दे यह हमे चाहिये । उनके सँग धोखा किये हम ... वो क्या रँग चाहते ... हम क्या हो जाते । परन्तु हमारी हल्दी नीला रँग दे तो हम उसे फेंक देंगे सोचेगे खराब हो गई । उन्होंने हमें नष्ट कभी नही किया , और सदा हम उन्हें उनके सुख से मिले ही नही । रसगुल्ला आपका मुख मीठा ही करेगा ... उन्होंने हमसे ऐसी आसा की हो और हम कड़वे हो गए । पर फिर भी उन्होंने आपत्ति नही की । हमारी वास्तविक स्थिति अचाह से होगी । रसगुल्ले में मधुरता कोमलता है ,उसे अन्य इच्छा की आवश्यकता नही ।
किये हुए का अभिमान , फल की आशा , अपने रचियता के विपरीत , प्राप्त परिस्थिति का दुरुपयोग , जो नही वह होने की भावना ... हमारी कौनसी वस्तु करती है । पंखा कब मन करता है कि खाना पकाउँ । चूल्हा कब मन करता है एयर कंडीशनर हो जाऊं ।
हमने स्वयं को उपकरण नही माना ।
हमे किये हुए का अहंकार ,तो मैं रहेगा ही ।
फल की आशा तो भोगी भी रहेगा ... जबकि जगत में कोई वस्तु अपने को नही भोगे यह हम चाहते । कलम खुद की इच्छा से कही भी हमारा सिग्नेचर कर दे तो ...
हर वस्तु हमें सुखी करें परन्तु हमारे प्रेमास्पद हमसे सुखी यह तो तब हो जब हम वही हो जो वो चाहे वह स्थिति सम्पूर्ण कामना , वासना , चाह रहित चित्त में होगी ।
प्रत्येक प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग हो ... दुरपयोग होता स्वार्थ बना लेने से परिस्थिति को । हर हाल सदुपयोग हो । हमारे उपकरण हर हाल हमे सुख देते । पँखा रात को चलने को मना नही करता । हम दुःख में या सुख में प्रियतम का सुख नहीँ देखते ।
अपितु अप्राप्त भांति - भांति की स्थिति हमें चाहिये । ना जाने हम क्या हो जाना चाहते है ... यह हो तब भजन करूँ , तब भक्ति करूँ । जो हमे बनाया गया वह हम हुए नही और ना जाने हम क्या होना चाहते । नित्य चिन्तन कीजिये क्या उन्हें आपसे सुख ... अथवा आपको ही अभी सुख दुख हो रहे । ... जब अपने हाल से दुःख और सुख न हो । और उस समय उनके सुख की प्राप्ति ही अनुभूत हो ... वह अचाह से प्राप्त वास्तविक जीवन है । सुख और दुःख के परे । नित्य आनन्द । तृषित । जयजय श्यामाश्याम ।
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