नित बरसत रस धार , तृषित
बड़ी कृपा से किसी भावुक की भावुकता पक कर उसे नित्य सत्य रस झारियों में ले जाती है ।
भावुक को भावुकता को सहजना चाहिये ।
पात्र में थिरता आवश्यक है जब ही कृपा वर्षा से वह लबालब होगा ।
सौभाग्य है हम सभी मिट्टी के पात्र है , हाँ आकृतियाँ भिन्न है , पर है मिट्टी के पात्र ।
मन को दोष देते हम मानव से एक स्थूल पात्र श्रेष्ठ है जो पात्रता की सिद्धि करता है ,
हम पात्र है , कृपा रस वर्षा नित्य है और हम फिर भी भोग विषय रूपी विष से भरे है तो यह पात्र की कितनी बड़ी हानि है ...
हमने बहुत कुछ बहुत बार भरा , और हर बार कचरा भरा ।
रसिक हृदय धन्य जिनमें सरस् रूप नाम अमृत सुधा निधि लबालब भरी ... श्री हरिदास ।
जयजय श्यामाश्याम ।
नित बरसत रस धार
थिर थिर मनवा विषयन डूबत , नैनन निकुंज निहार ।
जग कीच पुनि पुनि भरत ह्वे कीच बीच करयो विहार ।
रसिक पद चरण रज सु कर प्रीत तृषित , ज्यों नित करत युगल पद श्रृंगार ।
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