*सम्बन्ध* अनन्त खग प्रजातियों में कितने पक्षियों का संवाद मैं समझ पाता हूँ । किसी का भी नहीं न । और कौए के परिकर समझते न उसका भी संवाद । क्या कभी किसी द्रुम बेल ने अपनी कोई आंत...
*निवृत्ति का उदय* हमारा संसार जब तक सर्वहितोन्मुखी न हो तब तक प्रवृत्ति बनी रहेगी प्रपन्च में । क्योंकि सर्व हित में निहित प्रवृत्ति में नव नव भोग-राग नहीं लगते और मूल में न...
*अपयश महिमा* *जब तक साधना पथ पर बाहरी अपयश प्राप्ति होवें तब तक साधक स्वयं को विधान की साधना में अनुकूलता अनुभव कर सकता है ।* जब साधना पथ में बाह्य-कीर्ति मिलें तब साधक विधान द...
*भोगी और (प्रीति) प्रेमानुभव* चेतना प्रेम से पृथक नहीं मृत्यु तक चेतना प्रेम ही तलाशती , काम नहीं ।अतः काममय जगत प्रेममय होने को लालायित । परन्तु वह काममय ही प्रेम को अनुभूत क...
श्रीउज्ज्वले अपने ही उज्जवलत्व को नहीं देख पाती । श्री मधुरेश अब भी स्वयं को सर्व रूप कृष्ण समझ रहे । उज्ज्ज्वलस्मिता ने उन्हें सर्वरूपेण घनिभूत उज्ज्वल पुंज रूप ही स्व...
उज्ज्वले श्रीप्रियाजु घनिभूत नवनीत मधुर सुधा । पारस मणि को पाषाण क्या देवें । बस लालसा करें कि छु जावें । एक रेणुका भर । चिंतामणि तो रेणुका ही है इनकी , इनकी रेणुका ही इष्ट ह...
*सर्व आस्वदनीय विषामृत-प्रेम* विषयी चित्त विषय खोज रहा । आमिष देह (माँस) आमिष के सुख को खोज रही । दैहिक सुखों को । इस देह को ही हम स्व माने रहते । लोभ है विषय पूर्ति का , सभी विषय स्...