निवृत्ति का उदय , तृषित
*निवृत्ति का उदय*
हमारा संसार जब तक सर्वहितोन्मुखी न हो तब तक प्रवृत्ति बनी रहेगी प्रपन्च में ।
क्योंकि सर्व हित में निहित प्रवृत्ति में नव नव भोग-राग नहीं लगते और मूल में निवृत्ति मिलती है । निवृत्ति अर्थात वैराग्य यह भी साधना का अग्रिम स्वरूप ही है अनुभूत होता है प्रवृत्ति काल के सर्वहितमयी होने पर ।
मान लीजिये मेरे पास 1 लाख केले हो , क्या वह मैं अकेले खा सकूँगा । सम्भवतः नहीं , खा भी सका तो दीर्घ काल मे । सरल उपाय है 1 लाख जगह बाँट दो, जिससे 2 ही मिनट में वह पूर्ण होगा । चुँकि यह केले मैं न बांटता , लेकर रखता तो या तो इनके संरक्षण में होता या इनकी चिंता में । या इनके सँग इनमें राग न रहता और अन्य वस्तु में राग होने लगता । सर्व हित उसे वितरण करने पर विवेक विकसित होकर कहेगा कि अग्रिम वस्तु भी संग्रहित हुई तो यही विधि होगी अतः संग्रह का लोभ शून्य होता जावेगा । जब सम्पूर्ण राग निवृत्त होवै तब ही तो निवृत्त काल का अनुभव सम्भव है । बहुत बार यह साधकों का प्रश्न होता है कि कब हम मुक्त होवेंगे , प्रथम तो अनन्त विषय-राग में श्रीप्रभु जी ने जीव को नहीं बाँधा , जीव स्वयं फँसा है और इन विषयों को जब तक वह स्वयं न नकारें यह छूटेंगे नहीं । अतः प्राप्त स्थिति का सदुपयोग आवश्यक है । प्राप्त सर्व शक्तियों सँग जहाँ हम खड़े है वही से भगवत्सेवा प्रारम्भ हो सकती है । चींटी न केवल अयोध्या जाती है भगवत्सेवा के लिये , न श्रीधाम । जहाँ है वहीं से जुट जाती है । ऐसा नहीं कि वह चींटी किन्हीं नित्य धाम की पात्र ही नहीं है , वस्तुतः श्री चिन्मय धाम स्वयं अंगीकार करते है जब अन्य कोई राग न हो और स्थिति नित्य रूप से धाम के अनुकूल प्रकट हो जावे । सन्सार में हम मानते है कि बेस्ट यूनिवर्सिटिज के बेस्ट स्टूडेंट्स को वर्ल्ड क्लास कम्पनीज खुद कॉल करती है ,क्यों करती है , क्षमताओं के विकास के कारण ।
अतः जहाँ है हम वहीं से विषय-राग त्याग श्रीयुगल चरण अनुराग में नित पगे रह्वे , व्याकुलित रहे तब पुकार उठेगी । अपनी वस्तु तो श्रीधाम भी बाहर नहीं छोडता है , हम उनकी वस्तु होवें । प्रपञ्च के अनादर से कभी राग निवृत्त नहीं होंगे , प्रपञ्च की विदाई वैसे हो जैसे पिता सम्मान से कन्या की विदाई करते है । जगत-प्रपञ्च से द्वेष रख कर भगवत चिन्मय धाम के प्रति जो आस्था बनेगी वह उस द्वेष की नींव पर होगी , वह जगत से द्वेष जिस क्षण हटा उसी क्षण यह आस्था का भवन भोगमय हो जावेगा । यहाँ कन्या की तरह सम्पूर्ण प्रपञ्च लगें और सजा कर श्रृंगार कर उस प्रपञ्च को भगवतोन्मुखी किया जावें । कहने का अर्थ अपनी देह , अपना वास धाम हो जावें । निवृत्त काल की साधना भी है तो साधना ही , बहुत बार लोक वासी भक्त पूछते है कि कब भव रोग छुटे । तो यह जाल छूटेगा सुलझाने से , इसके सदुपयोग से । वो लाख केले सड़ जावे और मैं स्वयं को भक्त कहुँ यह भक्ति नहीं , प्रथम तो लाख केलों में ही मुझे लाख श्रीनारायण का अनुभव होवें । आज भोग विषय बहुत गहरे हो गए है सो वस्तु की वितरण प्रणाली का स्वरूप बिगड़ गया है , आज जल का अनादर है , अनादर की हुई वस्तु से पूजा सम्भव नहीं । अगर वहीँ जल शिवार्पण करते है हम तब भगवतोपचार होने से उस जल का आदर भी होगा और अनर्थ प्रयोग भी नहीं होगा । भोगी मनुष्य श्रीधाम में बसे उससे उत्तम है निर्भोगी बन्दर-पशु वहाँ श्रीयुगल को सुख देंवे ।
श्रीधाम वास चाहते तो वास से पूर्व दस दिन कम से जीवन को कहीं सेवामय कर के अनुभव कीजिये , उन दस दिन में सेव्य स्वरूप में भगवत अनुभव ही रह्वे , किसी काल मे सेवा के प्रति न्यून सी खीज न हो जैसे सरकारी कर्मचारी खीजते अपने ही सेवाकाल में वहाँ समपर्ण अभाव से ऐसा होता है , सेवा काल मे ..मैने यह सेवा की... ऐसा किया , वैसा किया आदि यह अहम वाच्य राग भी न हो तब भीतर श्रीधाम में प्रवेश कीजिये , शीघ्र असर होगा । निवृत्त काल का उदय प्रवृत्त काल के सदुपयोग पर ही प्रकट होता है । चन्द्र दर्शन वह सुंदर करेगा जो सम्पूर्ण दिवस सूर्य की प्रभा का सदुपयोग कर चुका हो । सूर्य से पीड़ित आवश्यक नहीं चन्द्र-प्रेमी हो । चन्द्र प्रेमी सूर्य में भी वह मधुरता-स्निग्धता खोज सकता । प्रत्येक चित्र का आदर ही चित्रकार के प्रति प्रेम है , चित्रकार के एक चित्र का अनादर कर अन्य चित्र का आदर कर चित्रकार से प्रेम नहीं सम्भव, कमल के खिलने से पूर्व कीचड़ को नमन कीजिये । वरन मूल में समर्थ अपनी समर्थता उद्घाटित करते ही है , सर्व साधनाओं की असमर्थता पर । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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