स्थूल की आवश्यकता और आध्यात्म , तृषित
जयजय सादर नमन जी ।
अपने आत्म बोध से प्राप्त स्व के अकथनीय भेद कहने से वह भेद मन के लिये लालसा का विषय नहीं रहता । मैं कामुक हूँ , यह स्वीकार्यता ही काम से मुक्ति का प्रथम कदम है । सभी सिद्ध रसिक जन ने स्व वाणी में यह कह कर स्व स्थिति को खोला और तब प्रभु के प्रेम महिमा को गाया । मंथन करने पर स्व द्वारा पाषाणों के संगठन में श्रीप्रभु के निर्मल प्रेम चेतनामृत प्रवाह सुधा का दर्शन पर प्राप्त होता है । असमर्थता के स्वीकार होने पर ही समर्थ का नित्य सँग अभिभूत है । ब्रह्मचर्य सर्वभूत ब्रह्ममय जीवन है , जैसे जल बिंदुओं का घनिभूत रूप सागर रूपी सुधानिधि है , वैसे चेतना रूपी बिन्दु को ब्रह्ममय अनुभूति हो , जैसी बिन्दु को सिन्धु सँग का नित अनुभव है ।
ब्रह्मचर्या स्थूल शरीर के शुक्र का संगठन मात्र नहीं है ।कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर का जीवन प्रकट अनुभूत होवें । मूल में कारण देह का कारण और सूक्ष्म की सूक्ष्म की नित्यता के सँग स्थूलदेह का भी एक नित्य स्वरूप है । स्थूल देह से पृथक चेतना साधक नहीं हो पाती अजर-अमर चेतना के लिए स्थूल का सँग ही अमरत्व की यात्रा है । अतः स्थूल की सदुपयोगिता स्वरूप प्राप्ति के लिये चेतना के भू रूप प्रकृति (स्वभाव) की प्राप्ति में समर्थ है ।
चेतना को स्वभाव के अभाव में ही स्वरूप दर्शन असम्भव है । स्वरूप दर्शन की साधना सर्वरूप प्रकट मूल कामना ही है , स्वभाव की लालसा का ही व्यापक अभाव है और स्वभाव के अभ्युदय पूर्व स्वरूप अनुभव ही नहीं हो सकता । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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