सर्व आस्वदनीय विषामृत-प्रेम , तृषित
*सर्व आस्वदनीय विषामृत-प्रेम*
विषयी चित्त विषय खोज रहा । आमिष देह (माँस) आमिष के सुख को खोज रही । दैहिक सुखों को । इस देह को ही हम स्व माने रहते । लोभ है विषय पूर्ति का , सभी विषय स्थूल पिंड देह का सुख चाहते । विषयों से निरन्तर पीड़ित हम जीव पीड़ा भी स्थाई चाहते है । उत्सव की तो सिद्धि ही जब है जब नयन सजल होवें । प्राण रूपी चेतना का श्रृंगार कर कन्यादान करते हम , उत्सव रचते और इस उत्सव की पूर्णता होती उन विदाई स्थितियों से । प्राण देने को प्राणों से सजाया उत्सव और प्राणों को ही प्राण हर ले जाने के लिये सजी प्राण स्वरूपा कन्या यह प्रीति रूपी सुता जो नववधू है मनहर की ।
रसिक पिय , नवरस रसिया है । नौ रस एक क्षण में हिय में फूँके , पुनः उसी क्षण हिय से नव रस खेंच लेंवे ।
प्रेम जो संसार मे कबहुँ पुष्ट न होवै क्योंकि सन्सार में प्रेम को तृषातुर कोई देख न सकें । परन्तु प्रेम को स्वभाव विचित्र है , विशुद्ध अमृतसुधा को भी नित क्षण नवमधुरामृत रँग रस देकर अमृत का अमृत्व संदिग्ध कर देता प्रेम ।
वहीं ऐसी पीड़ा , ऐसी अनिवार्य पीड़ा की कालकूट विष भी लज्जित होवे क्योंकि विष का आस्वादन असम्भव है वो तो एक ही बार मे प्राण हर लेवे । प्रेम तो नितप्राण देवें । नित प्राण हरे । विष की पीडा किसी प्रेमी के लिये कोई पीड़ा नहीं । अपितु यह विष तो औषधि है , परन्तु प्रेमी तो बाहर से मिली यह विष रूपी औषधि पीना भी नही चाहता । क्योंकि पीड़ा यहाँ प्रेम जो दे रहा वह विष क्या देवेगा । यह प्रेम की पीड़ा भी आस्वादनीय है । यह प्रेम नित आनन्दमय मधुरामृत भी तो देवें , सन्सार को कोई उत्सव प्रेमी की एकांतिक मधुर, मधुर मात्र नहीं विषमयी मधुर स्थिति को भँग न कर सकें । प्रेम न मात्र एक जीवन है , न मात्र एक मृत्यु । प्रेम तो नित रस है , नित रस में रसिली पीड़ा है । प्रेम की इस मधुर पीड़ा को और अनुभव करने हेतु सुनियेगा श्रीकृष्णकर्णामृत का अग्रिम भाव 5 । शेष भाव उससे पूर्व नहीं सुने तो सुनिये जी । इस माधुरी में जो आस्वादन है वह कहीं किसी विषय प्रपन्च में ह्यो न सकें है जी । नाक रगडूं आपके सन्मुख सुनियेगा ,कि होई सको जे नवघन के प्रेमसिन्धु में नव सुख भूमि । तृषित । जयजय श्रीवृन्दावन जी । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
कृणामृत मधुर ... श्रवण से ही सम्भव होवे न ।
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