सहभागिता का अभाव क्यों - तृषित

सहभागिता का अभाव क्यों ???

*भ्रम भी सामूहिक हो विकट रोग हो जाता है । द्वंद आदि भी परवशता से है ।*
*परवशता त्यागनी नहीं बस समुचित चरणों में यही परवशता सौपनी है ।*

संसार को जिस वस्तु में रस होता है वह उसका ही श्रृंगार और उसका ही वितरण करता है । वह वितरण भी तो स्वश्रृंगार ही है ।

मान लीजिये जिन्हें राजनीति वार्ता में रुचि वह सब वैसे भावों का परस्पर वितरण करते है ।

मैं संसार से यही सीखता हूँ कि जैसे उन्हें अपने-अपने क्षेत्र में रूचि और उत्स है वैसे ही हम भी युगल रस में उत्सवित होवें ।

जैसे व्हाट्स एप्प पर जोक्स-राजनीती के समूह है और वहाँ भक्ति प्रेम सर्वथा अवांछनीय है वैसे ही हम एक युगल रस के माहौल में रहें जिसमें शेष सर्वथा निषेध होवें । निषेध अर्थात् यही कि आवश्यकता ही ना हो अन्य चिंतन की ।

परंतु जैसे यह सम्भव नहीं कि आध्यात्मिक या भक्ति पथिक इह लौकिक भौतिकवाद का वितरण करें ।
और यह भी सम्भव नहीं कि भौतिक वांछित कभी सहज
भक्ति या आध्यात्मिकता का वितरण करें ।

स्वाद की बात है , जिस वस्तु का स्वाद ही नहीं हो वह पुरसी जायें यह असम्भव है । स्वादात्मक एकता से ही सँग में रस है ।

युगल तृषित या श्रीश्यामाश्याम कृपा नामक यू टयूब चैनल को सहभागिता का अभाव है क्योंकि वह अपने जाने या माने स्वाद से परे की कोई मानसिक रोग सी स्थिति भर अनुभव है ।
अथवा अपने कल्याण का लोभ तो है श्रीयुगल श्रृंगार को सुनकर निहारने जितनी स्थिरता हेतु श्रीयुगल में प्रीति सम्बन्ध वांछित है ।
इस पथ पर कोई चुपचाप भी चलें तब भी भीषण प्रपंच की मार सहन करनी होती है । फिर इस पथ पर ही सेवा होवें तो प्रपंच को क्या अनुभव हो रहा यह चिन्तन तजकर श्रीयुगल और युगल रस के रसिकों को क्या सुख हो रहा  ...यह लालसा बढती है ।

एक समय था जब बाहर बहुत सँग था । पर जैसे जैसे रस सेवा गहन हुई बाह्य सँग अदृश्य ही हो गये । सोचिये 1 से 3 श्रोताओं में हुये कथाउत्सव । फिर समाधाम भी मिला कि प्राकृत 1 भी क्यों हो ? और जो असहभागिता व्यापक होकर मिली उसे ही शक्ति मान स्थिर एकान्त की झारी बरसने लगी । अर्थात् सहभागिता का यह अभाव जिस कृपा रस पर ले गया वह पान्डालों में असम्भव था ।
पान्डाल का सामुहिक परिवेश कभी फूल से बात नही कर पाता । ना ही किसी तितली का नृत्य ही देख पाता है । पान्डाल की अपनी क्षमता है और स्थिर एकान्तिक रस की अपनी मधुता ।
मधुता के भेद एकान्त में ही खुलते है । माँ भी लाल को एकान्त में ही जब वह सो जावें चूमकर हर्षित होती है । मधुता जितना अपने प्रेमास्पद से अनन्य होने को मिले उतनी बढ जाती है । जो बालक माँ की गोद में सोता है वह अन्य सँग खेलते समय यह कह नही पाता कि प्रीति तो माँ सँग ही है । मधुता सदा अपने प्रेमास्पद सँग अभिन्न होने पर ही मिलती है । जहां अति निजता हो ।
माधुर्य रस को निज रस भी कहा जाता है और निजता केवल उसी को अनुभव आ सकती है जो उस निजता को अनुभव किया होवें ।

एक श्रवण है ताप का श्रवण जिसे सुनकर असत भस्म हो और मधुर शीतल सत्य का सहज सँग हो ।
परन्तु भोग जगत् में नित्य भोगपान होने से वह ताप सदा ही सुख देता है और भावुक को नित्य नवीन वैराग्य की माँग चाहिये होती है ।
जबकि असत के भस्म होने पर सत का अनुभव अति ही शीतल है । वह मधुरता-शीतलता सहन ही नही हो पाती है इतनी शीतल है । यह स्थिति है नित्य-सरस नव-अनुराग की माँग । इस स्थिति में सत्य का वह सँग शीतलतम प्राण सँग है । इतना सुखद शीतल सरस सँग है वह कि उसके सँग सचेतन क्रियात्मक होने का स्वप्न ही शीतलता से छुटना है । अनुराग स्थिति में उतरने पर मधुरता शीतलता उतरोत्तर बढती है । और ऐसी सरस स्थितियों के रसिक प्रेमी ही उज्ज्वल श्रीप्रियाजू जैसे भाव श्रृंखला को पीते है क्योंकि उसमें अपने कल्याण की वाँछा का पथिक नही है ।
भीतरी सरस मिठास की मिठास बढाने का सरस साधन प्रेमी रसिक खोज रहा होता है । उनके हेतु लोक में अपनी सरसता और शीतलता को और सरस रखना हो नही पाता सम्भवत: ऐसे ही सरस मधुर पथिकों के हिय को लक्ष्य रख श्रीप्रियतम ने इस जीवन में आई असहभागिता का ऐसा श्रृंगार किया जिससे भीतर बाहर केवल रसिक ही रसिक होवें । फूल होने का कोई साधन नही है ...बस जड़ से लेकर लता तक जो सरस सेवा की इच्छुक वृति है और लता की शाखाओं का छिपा सौंदर्य है वह ही फूल है । शाखा की पात-पात की सरसता से वह फूल ही प्रेम रूपी फल है । जैसे अपने भीतरी रस को शाखाओं ने जीवन देकर सजाकर अति कोमलता और सुगंध भरकर अपने प्रेम को प्रकट दर्शा ही दिया हो । शाख-पात फूल की तुलना में नीरस है परन्तु संजीवन करते यह ही शाख-पात ...गोपन सरस मधुर रस देकर उस फूल को ।

प्रेम की प्रफुल्लता को ही सरस मान श्रृंगारवत या रसवत भोगने को आतुर जीव ही उसी प्रफुल्लता का आदर नही रख पाता है ।
प्रेम की प्रफुल्लता चाहिये तो सँग हो प्रफुल्लता का ।
कोमलता-शीतलता-सुगंध और मधुरता की माँग जीवन में होने से ही फूल प्रिय हो सकते है । और सम्भवत: फूल सभी को प्रिय है परन्तु फूल की प्रियता का अनुभव सभी को नही । यह फूल सँग प्रियता ही है माधुर्य रस की तृषा ।

जब हम बेशर्म होकर भाव रस के लिंक्स को शेयर करते रहते है और जब उनके प्रति अनादर भी अनुभव करते है जब इग्नोर किया जावें अथवा ब्लॉक भी।
पर यह सब धक्के खाकर रस में झुमना युगल सेवा की एक लीला भर है । इस असंगता का सरस सार है अति सुखद झूम । जिसका सँग अब छुट भी नही सकता क्योंकि छुटने के परिणाम में प्राप्त यह झूमना (रस) छूटने वाला नही । यह रस नित्य नवीन अप्राकृत मधुर है ।
भाव वितरण आवश्यक सेवा है जिसके लिये भी युगल ने अभी तत्काल ही निर्देश दिया कि जितना हो अपने से सम्पादित होवें भलें झंझट लगें । रस वितरण होकर सर्वभूत हो यह वैसा ही जैसा रात्रि में सूर्य है पर अनुभवहीनता से माना जाता नहीं है ...सूर्य है इसके लिये ऊषा को अनन्त किरणों से धरती पर उतरना होता है । सुर्य तारों या नक्षत्रों को अपनी ऊष्मा देकर अपनी सेवाओं से क्षणिक अवकाश को नही जा सकता । सुर्य और अविद्या के विशाल द्वंद्वात्मक सरोवर का कोई मिलन भी नही परन्तु उन्हें अपनी सेवा नित्य स्वयं ही करनी है सो इनसे सेवात्मक आश्रय समझ वितरण जारी है ।
उपद्रवी आधुनिकी भोगी जीव भले सुर्य के ताप का निरादर करें अथवा चन्द्र की शीतल-मधुरता का निरादर करें । सभी अपनी सेवाओं में नित्य ही है । जब तक उनकी सेवा का प्रलयकाल (विश्राम) न प्रकट हो ।

मेरे पास प्राप्त प्रति विकट स्थिति का पर्याप्त उत्तर भी आ ही जाता है । जैसे कि यह लेख पहले असभागिता के अभाव से हुई पीडा में भरा था । जिसे अब असहभागिता से मिली कृपा रस में अनुभव कर वह ही नवीनता सँग प्रकट कर रहे ।
असहभागिता को बडा ही मार्मिकता सँग अनुभव भी किया और उससे मिले अखण्ड साहचर्य की सौरभता को भी किन्हीं ने सुगंध ली ही हो । हमारा अहंकार सहभागी होने से रोकता है और आज इस जगत में अहंकार का भी सामूहिक स्वरूप  है ...यह ही सामूहिक अहंकार रूपी चेतना किसी दिन सामूहिक हनुमान (सेवक) रूपी उदार सहृदयता में सेवायत हो सकती है । अर्थात् आज लोक में अपना कोई निज अनुभव नही अपितु सामुहिक प्रतिक्रिया ही अपना अनुभव है  ।
जगत आज सामूहिक अभिव्यक्त और सारा जीवन सामुहिक नकल भर है जबकि भक्ति या आध्यात्मिकता अत्यंत निजतम  अनुभवगम्य वस्तु है ।
परन्तु जगत में आज अपने आध्यात्मिक सीढियों पर चढ़ना भी सामूहिक रूप से होता है अर्थात् नकल भर की चाल रहती अपनी उसमें कोई माँग या वेदना ना होती , वैसे अध्यात्म अपने भीतर केवल स्वभाव को चुनता है , ना कि सामूहिक भीड़ कभी समान रूप मुक्त हो सकती है ।
मतलब यह कि अगर हम विशाल समूह में एक सँग एक दिशानिर्देश से भी भीतर के रस पथ पर चलें तो सभी भीतर समूहवत सँग नही होगें सबकी अपनी-अपनी स्वभाविक सेवा है जो पूरी माँग से चाहने पर ही खुलकर दृश्य होगी । (अपनी साहचर्य स्थिति)
            ...और इसी सामूहिकता के सदुपयोग के लिये हम सेवायत है ...सामुहिक स्थितियों से छूटने की विधि है प्राप्त लोक की सेवा हो सकें । सामुहिक भावना को स्वभाविक रूप छूने हेतु स्वभाव में समूह की तो सेवा हो पर स्वभाव समूह से स्वतंत्र भी हो अर्थात् प्राकृत दासता (परतंत्रता) छुटे ।  इसमें स्वतः कोमल सुन्दर भाव फूल होकर आगे बढ़ जाते है , जो चेतना फूल(भाव) न हुई , वह क्रमिक विकासशील हो गतिशील रहती है ।
          जगत रूप सामूहिक अहंकार की चोट से भावना का  स्वभाविक श्रृंगार हो जैसे कि अनन्त चोट से आभूषण प्रकट होता है ।
सँग होवें जो असत से परे सरस सँग हो । असत सँग की प्रियता से अपने प्रति ही उपकार नही हो पाता ।
           प्रकाश की एक किरण में अनन्त जीवन-कण  होते है परन्तु वह क्यों परवश है यहीं अनुभूति हो जावे ...
जीव अपनी इसी परवशता को मूल को निवेदन कर उनके आश्रय में शरणागत हो सकता है ।
     चिन्तन करिये   ...हम क्यों नहीं छुटना चाहते और क्यों सरस माधुर्य का आदर नही कर पाते ???
जिस दिन तितली हमारे पीछे भागे । उन्माद में हमें देखकर निकट आई गिलहरी को देख हम छिप जावें । सरसता का आदर होने पर पद-चिन्हों पर सरसता नव किंकरी होकर आश्रय आतुर होती है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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