दृश्य , तृषित
*दृश्य*
नित्य दृष्टि के लिये प्राकृत दृश्य का भँग होना आवश्यक है । अथवा प्राकृत की क्षमताओं को पार कर जाने पर इंद्रधनुषिय रँग से परे ... क्या *गौर-श्याम* ... अपरिमित भावसेवा-श्रृंगार के रंगों में उलसते श्रीप्रियाप्रियतम ।
प्राकृत दृष्टि प्राकृत रँगों के दायरे में सीमित है जब तक कि नित्य दृश्य लालसा न होजावें ।
जीव प्राकृत दृश्य से अभिन्न है , इतना अभिन्न की वह इस धरा से विरक्त भी हो जावें तब भी इस धरा के दृश्य से नहीं छूट सकता ।
जबकि दैहिक निद्रा हेतु भी नयन मुंद लेना अनिवार्य है तब प्राणों के विश्राम को दृष्टि की आन्तरिक परिपक्वता के छुआ नही जा सकता । जो भी खेल हम केवल सुनकर अनुभव करते है वह अति गहरा अपना होने लगता है । उदाहरण के लिये निकट के कक्ष में कोई शोर हो तब भय ऐसा होगा कि जैसे कोई प्रेत हो वहां जबकि वहाँ चुहा ही हो । अदृश्य लीला होने पर तुरंत प्राकृत स्तर की भावना नही स्पर्श होती ।
परन्तु दृष्टि को आन्तरिक रखने हेतु वह लोकविलास से तृप्त ना हो जबकि नयन बन्द कर हम बन्दर का भी नाच नहीं देखेंगें । प्राकृत मोह अतिपक्व है ...यह वैसा ही है जैसे मल के कीट के लिये मल ही सार हो
मनुष्य वह स्थिति है जो अनुभव के पथ पर चल कर नित्य दर्शन लालसा से नित्य दृश्य से एक हो कर प्राकृत अप्राकृत के भेद को मिटा कर नित्य-चैतन्यता को प्राप्त कर सहज नित्य जीवन को जीवन रहते छू लेंवे । नित्य अप्राकृत रससार महाभावानन्द परिपक्व जीवन ही चैतन्य कहा गया है । शेष जड़ जीवन है जो सदा पर के अधीन हो ।
जीव के भक्ति पथ पर यह भव-दृश्य बाधा है , क्योंकि वह इस दृश्य में ही सम्पूर्णता का दृश्य खोजता है । उदाहरणार्थ जैसे जीव पढ़ ले पुराण में कहीं .. *माणिक्यमणियों के पर्वत* तो वह माणिक्य का थर्माकोलिक सेट लगा कर उसे ही माणिक्य पर्वत मान हर्ष अनुभव करता है । और आसपास प्राकृत देह की छबि लें लेने से उसकी भक्ति पूर्णता को छू जाती है । क्यों हुआ यह ...प्राकृत मोह । कौन माणिक्य के वह पर्वत खोजें जो केवल आन्तरिक भावजीवन से दृश्य है ।
*यह जीव प्राकृत नेत्रों के अनुभव को ही शीघ्र चिंतन और मनन कर पाता है*
*परन्तु मनुष्य अपनी शिशुता को याद करें तो पायेगा कि नव जीवन सुलभ होने पर उसे अति नयन खोलकर रखने का मन नही होता था ...जागृत स्थिति में भी वह भीतर ही रस लेते हुये एकान्तिक क्रीड़ामय रहा था*
मूलधर्म तो जीव को अप्राकृत दृश्य देना चाहता है अतः उसे सर्प को पूजने को कहता है , वृक्षों को पूजने को कहता है ...कण-कण की वन्दना को कहता है कि जैसे धर्म कह रहा हो कि दृश्य में जो अदृश्य दिव्यता है उसे छूओ ।
कण-कण में निहित नित्य तत्व का दर्शन जब ही सम्भव है जब नयन-दर्शन से पूर्व दर्शनानुभव हो जावें । और वन्दना की जावें , आप ही बताइये ...बिना वन्दना कहीं भगवत-अनुभवामृत आपको हुआ । नहीं न । यहीं वन्दना की प्राथमिकता है , क्या सर्प में शिव प्राकृत दृश्य है ...परन्तु वन्दना शिव की होते ही वह वंदनीय हो गया ...वन्दना अपने हृदय का दर्शन और स्पर्श है ।
आज का युग अतिभौतिकी है । शिशु को चार्ट दिखा कर वस्तु बताई जाती है । apple कह दी जावे मौखिक स्वरूप , स्वभाव , गुण कहे जावे तब चिन्तन से उसका स्वरूप अनुभवगम्य होगा । दृश्य की इतनी प्राथमिकता है कि देख कर ही जीवन जीना हम सीखे है । यहाँ जिनके पास प्राकृत दृश्य नहीं उन्हें सुर रूपी दृश्य मिलता है । उनकी दृश्य क्षमता सुनकर प्रकट होती है । और कथित नेत्रहीन जीवन भर अतिसरल भावभंगिमाओं में सुलभ होते है क्योंकि हमारी भावभंगिमा (बॉडीलेंग्वेज) चोरी की है हमने नकल कर ली है । अगर हम कुछ देख ना पाते तो अपनी स्वभाविक भावभंगिमा में होते जैसे कोई नेत्रहीन ...यह हीनता भीतर उदारता भर जाती है और अहंकार की सम्भावना को अवसर नही मिलता है ।
आज मैं और आप सब प्राकृत दृश्य को शीघ्र अनुभव कर सत्य मानते है । अतः कहानी को फ़िल्म करने पर वह सत्य दृश्य होती है । अभिनय है यह बोध गौण हो जाता है और रुदन-हास्य-क्रोध रूपी नवरस वहाँ अनुभूत भी होते है , जबकि वह सत्य नहीं । परन्तु दृश्य है तो सत्य है या नहीं यह चिंतन रहता नहीं । हमारा मस्तिष्क दृश्य को शीघ्र अध्ययन करता है , दृश्य सत्य है या असत्य यह दायित्व विवेक का है , मस्तिष्क को तो दृश्य है यहीं प्रमाण पर्याप्त है । विज्ञापनों में केवल असत्य कहा जाता है परंतु सत्य के अभिनय सँग कहा जाता है और वह स्वीकार्य है ...उन असत्यवादी को जगत नायक-नायिका मान पागल भी बना रहता है । जबकि वह नायक-नायिका हानिकारक सामान भी प्रचार कर रहें होते है ...उन्हें अपने स्वार्थ में आपके जीवन के प्रति भी उदारता नही होती और अतिदृश्य भर होने से वह जीवन के नायक-नायिका हो गये है ।
हरे रंग को देख कोई कहे काला तब या तो वह पागल लगेगा या शोध होगा कि हरा है तो काला क्यों कह दिया , यहाँ कहने वाले से हमारा क्या सम्बन्ध यह भी महत्व रखता है । श्रद्धागत है तब तो उनकी वाणी स्वभाविक धर्मगत ग्राह्य है । ये अलग बात है कि आज श्रद्धा भी विषयासक्त के प्रति होती है । (एक-दूसरे की नकल कर विष और विषयों के विक्रेताओं को अपना आदर्श माना जाता है )
देखकर ही सुनने के लिये हमने , दृश्य को ही बाहरी रूप सुंदर कर दिया है (भव्य पान्डाल)। चिंतन कीजिये , कोयल सबसे सुंदर दृश्य होती तब क्या उसकी कूक का महत्व होता ?? ... कूकना ही उसका सौंदर्य है ।
शारीरिक नेत्रों को जब तक हम भव्यता के स्वांग में रखेंगे । भावहृदय गत नेत्र दृष्टि की लालसा ही क्यों होगी ,दृश्य हम फैला लेवे तब भौतिकता ही फैलती है। सुन्दर पांडाल में नयनों ने वह दिव्य पांडाल ना देखा हो और सम्पुर्ण चेतना सीधे श्रवण पर लग गई हो यह कठिन है । (सिनेमाघर में स्क्रीन को दृश्य भर रखने हेतु शेष ऑडिटोरियम को अन्धकार में डुबों दिया जाता है जिससे दृष्टि उनके द्वारा प्रकट चित्र को देखें ना कि उस ऑडिटोरियम को)
धर्म-भक्ति पथ पर श्रवण... ही नित्य दृश्य का स्रोत है अतः वह प्रथम सीढ़ी है साधना में । हम देखकर सुनते आए है ...अनार हो , सेव ।
*हमें सुनकर देखना आवे*
सत्य को सुनाकर दिखाया जावें असत के प्रति विरक्ति प्रकट हो ऐसा सरल आयोजन होवें नाकि असत को और असत रख भव्य । वह भव्यता क्या आपको चिपकेगी नहीं । जब उसे मिटाकर श्रीहरिअनुराग भरने को कथा होनी है तो उस आडम्बर को स्वीकार ही क्यों किया गया ।
...सुनना ही पड़े दिखाई ना देवे तब हम सुनने में रुचि नहीं लेते है (केवल सुनना नही आता)। सुंदर दिखाई देवें फिर कहा कुछ कुछ भी जावें तब वहां सुख होता है । वहाँ सुनकर भी देखा ही गया है , वह दृश्य भी बाहरी है । सो भीतर कुछ दृश्य उद्भव ना हुआ । शास्त्र कहते है ...सम्पूर्ण भगवत पथ सुनकर ही हृदयंगम हो सकता है (श्रुति)। सुनकर सुने शब्दों की दर्शन रूप निजस्मृती प्रकट हो । पर वह जब होगा जब केवल सुना ही जावे ...स्मृति हेतु श्रुति और श्रुति हेतु स्मृति ।
देखा जावे परन्तु शास्त्र को सुनकर भीतर दिव्य चक्षु सँग ।
मैं जब बाहर उत्सव-सेवा में होता हूँ तब कई बार चाहता हूँ श्रोता नेत्र बन्द कर सुने । क्योंकि प्रायः श्रोता को नयनों से सुनना नहीं आता , नयनों से देखना ही आता है । और सत्संग , कथा या भावोत्सव *श्रवणिय* नित्यवस्तु है ।
...मेरे यू ट्यूब चेनल (युगल तृषित) पर जहाँ मैं दैहिक दृश्य नहीं हूं , वहाँ अधिक सरस् रस अनुभव बहुतों को हुआ है ।
बाह्य दृश्य के संयोजना में बजट दृश्य पर अधिक खर्च होता अथवा साउंड पर यह फिल्ममेकर भलीभांति जानते है । ऐसे ही हमारी चेतना रूपी बजट (शक्ति) वहाँ विघटित हो जाता है ।
अब हम एकान्तिक लघुउत्सवों अधिक सेवामय सुलभ है ...परंतु पूर्व में मुझसे सम्पर्क में आये आयोजकों ने जब कोई कथा चाहीं उन्होंने वीडियो भी चाहा , सीधे ओडियो से वह मेरा चुनाव नहीं कर पाए , अपितु सुने ही वीडियो फाइल्स है वें । क्योंकि वह सुनने में असमर्थ प्रायः है और देखकर चुनने में समर्थ । तो हमें न चाहते हुए भी दृश्य होना हुआ है परन्तु दृश्य न होने पर जो दर्शन भावगत प्रकट हुआ है वह अविस्मरणीय अनुभव हो सकता है श्रोता के लिये (मेरे अपने लिये भी)। क्योंकि हमारा अहंकार तब असहाय स्थिति में तब होता है और भाव एकाग्रता से सुनने पर प्रबलता में ।
क्योंकि मूल नित्य अप्राकृत दृश्य श्रवण से प्रकट सम्भव है ।
*अगर नेत्रेन्द्रीय से श्रवण में असमर्थता है तब सत्संग श्रवनार्थ होवै ।*
और श्रवनार्थ सत्संग या रससँग है तो दृश्य का विघटन कर चेतनाओं को भृमित न कर , हृदयस्थ दृश्य लक्ष्य होवे ।
सुनिये और ...सुनकर देखिये । धरा से कुछ पाखण्ड ही ध्वस्त हो जावेगा ...श्रीहरिदास । श्रीहरिदास । । श्रीहरिदास । तृषित । जयजयश्री श्यामाश्याम जी !! श्रीहरिदास !!
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