*भोगी और (प्रीति) प्रेमानुभव* तृषित
*भोगी और (प्रीति) प्रेमानुभव*
चेतना प्रेम से पृथक नहीं मृत्यु तक चेतना प्रेम ही तलाशती , काम नहीं ।अतः काममय जगत प्रेममय होने को लालायित । परन्तु वह काममय ही प्रेम को अनुभूत करते । प्रेम तो विषयों का सर्वथा विपरीत स्वरूप है । कैसे हो यह फिर ... ...
तब भी होता है ...काम की पूर्णता भी , विषयों की पूर्णता , लोभ की पूर्णता भी श्री प्रभु के चरणमकरन्द से लिपटा देती ।
इन विकारों से प्रेम चरणों मे गिरने की यात्रा प्रेमानुभव नहीं है क्योंकि यह तो निर्मालितीकरण (सफाई) है । सफाई में भी विकार का सँग तो है ही । जगत इसी यात्रा को प्रेम यात्रा समझता है । यह यात्रा तो जीव ने चुनी है भोग आसक्ति रूप । तो श्री प्रभु और रसिकन ने ऐसी परिपाटी कर दी है कि यह विकार भी सम्पूर्णता लेंवे तो उनमें समा जावें ।
हमसे बहुत लोग पूछ चुके अधम या विकार जगत को निर्मलतम होते देख कि यह कैसे हुआ ???
क्योंकि वह श्रीकृष्ण है , जीव मधुरता का पिपासु जहाँ भागेगा उनके अतिरिक्त परिणति होगी ही नहीं ।
अतः आज घनिभूत गहन भोग जगत शीघ्र निर्मतत्व में सजने को छद्म हटा देता , सब सहज त्याग देता क्योंकि वह स्वाद ले चुका सर्व रूपेण । आस्वादन मिला ही नहीं ।
परन्तु भोगी की प्रेम यात्रा प्रेमाभास है । उसे सहज निर्मल प्रेम का अनुभव कब होगा ???
...जब हृदय मात्र प्रेम प्रेम प्रेम और प्रेम रह जावेगा ।
अधिकतम भोगी की यह दशा कठिन है । मैं जिस फूल को तोड़ कर कभी सुखी हुआ उसे बिन तोड़े हो ही नहीं सकता ।
भोगी की गति तो रोगी से भी दयनीय होती है क्योंकि भोगी वस्तु के सँग से मिले प्रेमसुख को निज स्वार्थ भोग चुका । अतिभोगी कभी त्यागी नहीं होता अपितु उसका भोग ही विशुद्ध होकर पक जाता है ।
सीधे कहुँ प्रवृत्ति पथ स्वयं पूर्ण पक कर निवृत्त होता है ...यहाँ भोग ही विशुद्ध हो प्रसाद हो जाता है । परन्तु इस जीव ने प्रसाद चाहा नहीं भोगते भोगते हो गया । और स्पष्ट अनुभव के लिये जगत के धनी भोगी की खुराक देखिये , सूखा-कच्चा-बिन मसाले-बिन मधुरता । भोग की रोग ही गति रोग में जो खुराक वह चाही नहीं जीवन मे कभी । अपने से नीम की पत्ती चबा कर किसने उदर पूर्ति की । परन्तु रोग में करेला - नीम अमृत । वह अमृत है पर भोग की परिणति पर लगे । यहां नीम से , करेले से कोई प्रेम नही । 5
ऐसा ही आहार निवृत्ति पथ का पथिक एक झटके में सम्पूर्ण ऐश्वर्य को तज स्वयं पाना चाहते । वृन्दावनिय बहुत रसिको ने निवृत्ति सुख में सूखी लकडियों-पतों को चबा कर उदर पूर्ति की कामना की है । उन्हें रोग नहीं पर , भोग भी नहीं । भोग नहीं , रोग नहीं तब यह सूखे पत्ते कड़वे नहीं , यह प्रसाद है ।
मधुर प्रेम का अनुभव वैसे तो आज की मनुष्यता को हो ही नहीं सकता । सम्पूर्ण मनुष्यता जन्म से पूर्व भोगी-विषयी है ।
शायद ही धरा पर कोई मनुष्य चेतना हो जो अपनी संतान को मात्र प्रेम से तृप्त करें । प्रेम में ही डूबा देवे । भोग सुख में शिशु को डूबा देना ही प्रेमानुभव होता है । यह ही अविद्या है । सरल कहुँ , जिस वस्तु के भोग से आपको मधुमेह हुआ वहीं सब बच्चों को दे रहे न । क्या वह प्रेम दे रहे । या भविष्य का रोग ।
हम सबने समस्त परिमंडल निजभोग मान लिया है । है हम हम इस धरा के विष्टाणु पर स्वयं को शिव मानते है , जीव भी नहीं । जबकि जीव को जीव भी जब कहा जाता है जब उसे आत्म साक्षात्कार अनुभव होवे । उससे पूर्व जीव ने स्वयं ही अपने अपने नाम रख लिये है , इन नामों की सत्ता सिद्धि में जो लगा वह जीव कहने पर सुनेगा कहा ।
प्रेम का अनुभव क्रमशः ...
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प्रेम का अनुभव भोग-विषय से सर्वथा परे है । कितना सर्वरूपेण । भैंस का दूध भोगप्रदायक है , वहीं गौ का दूध चेतना का पोषक क्योंकि वह भू-शक्ति का समुचित रस है और मूल में सूक्ष्म को पोषित करता है । क्योंकि गौ तो भू तत्व है , जैसे प्रेम में श्रीश्यामा श्रीराधा जु श्रीकृष्ण रूपी आनन्द की भूमि ।
प्रेम और भोग बाहर दिखते एक से परन्तु यह मूल पोषण में सर्वथा विपरीत है , प्रेम होने पर भोग नहीं रहता और वस्तु से भोग होने पर उससे प्रेम नहीं हो सकता ।
प्रेम होता ही वहाँ जो भोगनिय न माना जावें । क्या मांसाहारी जीव से प्रेम कर उसका भक्षण करते है , भोग लेते अपने देह के लिये एक देह को ।
प्रेम होवे तो किसी जीव के मेरे हेतु प्राण छुटे उससे पूर्व मेरे ही छूट जावें ।
प्रेमाभास का दर्शन करना है तो नन्हीं चेतनाओं में - प्रकृति के मनोहर खेलो में कीजिये । नदी , पर्वत , वन , फूल , वृक्ष , झाड़ियां , पक्षियों में ।
यहाँ भी प्रेमाभास - जिन चातक, भृमर , मीन के प्रेम उदाहरण साहित्य देता वह भी मूल प्रेम से पृथक है । निज सुख विलास सर्व ओर । प्रेम का विलास उदय ही नहीं होता स्व पोषण हेतु ।
एक नन्हीं चेतना ने भैंस को देख कर कहा "गाय" । उसे बताया गया कि यह तो भैंस है , अब उसकी दृष्टि में वो सामर्थ्य नहीं कि वह इस भेद को समझे । गौ-आकृति से उसने कह दिया उसे गौ ।
परन्तु यहीं अद्वेत दर्शन लेकर चेतना आती है , उसे पृथकता - वस्तुओं के नाम आदि का भेद तो यहीं पढ़ाया जाता ।
अगर भैंस को गौ कहना बाहरी बोध की न्यूनता है । परन्तु प्रेम रूप यहीं सत्य है कि ऐसी दृष्टि ही उज्ज्वल है , जहाँ प्रतिरूप एक ही स्वरूप का दर्शन हो । मूल-उद्गम का दर्शन हो ।
राम हम जीने आते है और रावण यहाँ पहले दिखाए जाते है हमें ।
प्रेम क्या है ? जिससे पूछो वह अपने प्रियतम का नाम लेगा । फूल कहेगा भृमर जाने प्रेम । भृमर कहेगा फूल जाने । परन्तु मनुष्य से पूछिये वह कहेगा मैं हूँ प्रेम ... जीवन के भोगमयता को अभिनय से कहेगा मैं प्रेम हूँ । अतः मनुष्य की गति बड़ी विकट हो गई है, वह निवृत्त हो ही नहीं सकता स्व से तो स्व सुख से कैसे हो । सर्व रूपेण निवृत्त होने पर नित्य प्रीति तत्व का अनुभव हो सकता है परन्तु तब भी कह नही सकते कि वह प्रीति मैं ही हूँ क्योंकि वह दृष्टि प्रवृत्तिकाल मे नहीं थी । निवृत्त दशा प्रीति की दृष्टा भर , वह कह सकती मैं इस प्रीति रूपी सूर्य से प्रकाशित हूँ ।
मूल में जीव प्रीति का दृष्टा है । प्रीति से अभिभूत नित्य जीवन उस प्रीति के दृष्टा में है परन्तु वह जीवन जितने भोगों से दबाया गया । उतने ही ताप की लालसा से प्रकट होता है । ताप रूपी लालसा से वह प्रपञ्च काल मे भी स्थिर अनुभूत हो सकता है और वह नित्य जीवन जानता है प्रीति का स्वरूप और स्वभाव । वह नित्य जीवन ही प्रीति की सेविका । परन्तु यह नित्य जीवन हमें अनुभव नहीं क्योंकि भोग - विषय और देह के सुख से हम अनुभव ही नहीं कर सकते कि इस चेतना का एक अपना जीवन है , जिससे सम्बन्ध छुटा हुआ । उसी जीवन को प्रीति का स्वरूप स्वभाव अनुभव है ।
जीव देह से विष्टाणु है । अनन्त विष्टाणुओं से कीचड़ बनता है । यात्रा है इस कीच की नवनीत अणु होने की ।
प्रीति क्षीर(दूध) की मथित निर्मल नवनित(माखन) के अनन्त सुधार्णव का गाढ़ लहरित स्वरूप है । यह नवनीत का सागर प्राकृत नवनीत का नहीं है । दिव्य नित्य गोलोक की गौ का ही नवनीत है । इस नवनीत में खिली उज्जवलनीलमणी एक कुमुदिनी है । दो नहीं । एक कुमुदिनी ,वहीं स्वरूप जानता है और अनुभव कर सकता है , प्रीति क्या है । अर्थात युगल तत्व । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । श्रीहरिदास ।
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