अपयश महिमा

*अपयश महिमा*

*जब तक साधना पथ पर बाहरी अपयश प्राप्ति होवें तब तक साधक स्वयं को विधान की साधना में अनुकूलता  अनुभव कर सकता है ।*
जब साधना पथ में बाह्य-कीर्ति मिलें तब साधक विधान द्वारा प्राप्त यश को विधान द्वारा सतर्कता समझें ।
*साधना की लालसा में प्राप्त अपयश मन-हॄदय-प्राणों को आंतरिक उद्घाटन में लगा देती है । जैसे बहते जल पर रोक होते वह दूसरी धाराओं पर चलता है ।*
यह भावात्मक धारा उद्घाटित कब होगी जब बाहर अनुकूल धारा चेतना अनुभव न करें । भोग जगत में चेतना मन की इच्छाओं अधीन है । और भाव जगत में चेतना मन सँग भाव के भाव के । *आंतरिक राग जब होगा जब अनुकूलता आंतरिक हो । बाह्य अनुकूलताओं से प्राण बाहर गमन करते है जिससे बाहर पुनः चेतना मन के मोह में पुनः अधीन होती है । अतः आंतरिक भाव स्वरूप हमारा सम्बन्ध नित्य श्रीप्रभु से अभिन्न  हो उसके लिये बाहरी अप्राप्तियाँ आंतरिक सम्बन्ध प्राप्ति है ।*
जिन्हें नित्य बोध है कि बाह्य अपयश की साधनात्मक महिमा है और बाह्य यश-कीर्ति आंतरिक भाव-एकात्मकता का अभाव जिन्हें हृदय में अनुभव है वें ही मूल साधक है ।
*तृषित*

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