चेतना की असीमित तृषा , तृषित
*चेतना की असीमित तृषा*
तुम देह नहीं हो। देह तो मात्र एक आवरण है , यह आवरण जन्म जन्म बदले तुम। तुम चैतन्य हो, एक चेतना हो । छूटी हुई उस परम चैतन्य से। उसी का एक कण मात्र। जन्म जन्म में भिन्न भिन्न आवरण हुए। भिन्न भिन्न सम्बन्ध हुए, परन्तु वह सब अस्थाई। स्थायी तो केवल एक सम्बन्ध इस चेतना का उस पूर्ण चैतन्य से ही। आवरण डाल आवरण को ही जिये सदा। जड़ता में ही सुख तलाशते रहे, परन्तु चेतना को जड़ वस्तु से सुख कैसे सम्भव। चेतना का सुख तो उस परम चैतन्य में रमण ही। यह सुख भौतिकता की ओर अग्रसर न करते हुए भौतिक लालसाओं का नाश कर चेतना को उसके परम् सुख मूल उद्गम की ओर अग्रसर करेगा। चेतना का सम्पूर्ण बहाव उस चैतन्य की ओर ही। उसी का आकर्षण, उसी की सम्पति, उसी में विलिनता ही चेतना का सुख।
जब तक इस चेतना का बहाव उस चैतन्य की ओर न होगा, चेतना का विश्राम, विराम सम्भव ही नहीं। क्योंकि मूल के बिना चेतना अपना सुख कहाँ खोज लेगी। जड़ वस्तुओं का सुख केवल जड़ता तक ही सीमित है। जड़ीय साधन उस बहाव को तृप्ति न दे सकते। जड़ साधन से तृप्ति जड़ता की ही। चेतना की प्यास असीमित है। चेतना की तृषा असीमित है। चेतना का मूल रूप ही तृषित है। यही तृषा असीमित होने लगे तो इसका बहाव उस परम चैतन्य की ओर होगा। क्योंकि कोई सीमित साधनों से इसकी असीमित तृषा कैसे शांत होगी, वरन यह तृषा भी नित्य वर्धित हो रही। नित्य वर्धित क्योंकि इसका मूल चैतन्य ही असीमित। तो इस असीमित चेतना की असीमित तृषा का विश्राम उसी परम् असीमित चैतन्य में ही सम्भव है। अपने मूल में विलीन होना ही इस चेतना का परम विश्राम है। यह विलीन होना इनके सहज बिहार-रमण की सेवा होना होगा । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी
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