उज्ज्वले श्रीप्रियाजु तो , तृषित
श्रीउज्ज्वले अपने ही उज्जवलत्व को नहीं देख पाती ।
श्री मधुरेश अब भी स्वयं को सर्व रूप कृष्ण समझ रहे ।
उज्ज्ज्वलस्मिता ने उन्हें सर्वरूपेण घनिभूत उज्ज्वल पुंज रूप ही स्वयं को सौंप दिया है ।
मूल में रंग-रस-भाव कहीं भेद नहीं सो देह भेद भी न रहा । अप्राकृत देह वे । चिन्तन से ही वह हो जाती ....
मेरे युगल साधना करें । गाढ़ साधना । राधा राधा रह जावें की । श्रीकृष्ण कृष्ण रह जावें की ।
क्योंकि चिन्तन से स्वरूप स्वभाव सब उलट जाता इनका ।
आस्वदनीय वस्तु हो परस्पर हो चुके यह । स्वयं को झिली भर रख पाते स्वयं में । आस्वदनार्थ ।
उज्ज्वले श्रीप्रियाजु घनिभूत नवनीत मधुर सुधा ।
पारस मणि को पाषाण क्या देवें ।
बस लालसा करें कि छु जावें । एक रेणुका भर । चिंतामणि तो रेणुका ही है इनकी , इनकी रेणुका ही इष्ट हो । यह तो रेणुका की इष्ट सखियों के इष्ट कुँजबिहारी की इष्ट । अर्थात घनिभूत अभीष्ट प्रीतपिपासुओं के लिये ।
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