कोटिशः दण्डवत , तृषित
कोटिशः दण्डवत
अहा । ... दिव्यतम भाव यह । क्योंकि मूल में हम एक दण्डवत में ही अधीर हो जाते है ।
कोटि दण्डवत कौन करेगा ???
जिसके पास दण्डवत करने का कारण नहीं होगा ।
जिनके पास कारण वह अपर्याप्त साधना कर ही नहीं सकते ।
हो सकता है कुछ दण्डवत अहंकार को थोड़ी देर सबल कर दें , झुकना भी एक आडम्बर हो सकता है अथवा झुकना व्यापार भी हो सकता है । जैसे होटल्स में वेटर की सद्भावना हृदय से नहीं पर तब भी ग्राहक को राजसिक सुख देती है ।
कोटि दण्डवत वहीं करेगा जिसका हृदय अपार करुणा से भर गया हो । और रोम रोम समक्ष उठते न बनते हो । अद्भुत स्थिति यह ।
यहाँ कोटि दण्डवत , भावगत है परन्तु भावना में सबलत-प्रभावता-लोलुप्ता कोटि गुणित हो शरणागत हो , एक बार नहीं कोटि-कोटि बार । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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