द्रविभूत हृदय , तृषित

द्रविभूत हृदय

साधन सही से बने तो हृदय ठोस न रह्वे । अपनी साधनहीनता में हृदय द्रविभूत रहा करता है , नित्य सर्व विधि भजते हुए अपने समस्त साधन से अप्राप्य मानने पर ही हृदय कृपा-अनुभूति में द्रवित रहता है । भजन (सुमिरन) ऐसा हो कि कहा जा सकें कि सुमिरन बन ही नहीं पा रहा , जब तक भीतर यह भावना है कि मुझमें अभाव है तब तक पथ बना हुआ । वास्तविक अभाव तो निज-स्वभाव में ही जाकर सुखी होता है । पथ पर रसिक सँग बनें रहना ही पथ का मर्म है , रसिक या सिद्ध हुआ नहीं जा सकता ...बस सिद्ध-रसिकन के सँग से द्रवित रहा जा सकता है । जीवन रहते भजनमय होकर अपना दैन्य प्रबल होता रह्वे , दैन्य छूटने पर बाहरी कीर्ति आदि तो मिल सकती है हिय की तरलता तो अपनी असमर्थता पर ही प्रकट होनी है , समर्थ के सँग हेतु असमर्थता का अटल अनुभव रहना चाहिए । भजन जो हम करते वह बाहर से एक सा दिखने पर भी हमें हमारे स्वभाव स्वरूप की उपासना में लें जाना चाहता है , वस्तुतः हम मायामय जीव भजन के भरोसे नहीं होकर भजन को अपने अधीन समझते है अतः भजन रूपी जननी के नयनों से दर्शन नहीं बना पाते है।  अपनी अपराध बोध की स्थिति उत्तम है । वस्तुतः हम सभी अपराध बोध से ही भयभीत होते है । प्रतापी होने से पथ में बहुत हानि है परन्तु अपराध बोध की तो महिमा है , कि हृदय द्रवित कर देते है । उसी स्थिति का नाम निर्दोषता है । (यहाँ हम अपराध हेतु प्रेरित नहीं कर रहे अपितु कह रहे है कि स्वयं में अपराध दर्शन का उदय होता ही सच्चे को है , जिसे अपने मे अपराध दर्शन हुआ है ,वहाँ अपने किसी अन्य कीर्ति आदि प्राप्ति में हृदय सुख लेता ही नहीं , अपराध बोध होने से भावुक जन नित्य ही सँकोचित होते है जिससे पथ में अपनी प्राप्तियों की अपेक्षा अपने द्वारा किन्हीं को पीड़ा न हो यह भाव प्रबल रहता है । ) अपराध के प्रति ग्लानि से प्रायश्चित की आशा होती है सभी जड़ताओं- विषमताओं मलिनताओं का निदान सत्संग है , सत्संग का प्रतिफल श्रीप्रियालाल नाम-गुण-स्वरूप में श्रद्धा का विकास होते रहना । प्रति क्षण श्रीराधावल्लभ का नाम उनकी छवि हृदय में भरता है । जिस चेतना को हम अपनी ओर से मलिन समझते है उसे ही प्रभु अपना वास और विश्राम समझ प्रति नाम और वाणी-सुमिरण आदि में निज कुँज भाव से प्रकट होते है ।
अपने अपराधों से एक बात पक्की है कि हमसे अपराध बहुत हुए है , और होंगे भी क्योंकि हम जड़ता में फँसे हुए है । अपने से अपराध ही होंगे और उनके प्रेम से ही , उस प्रेम के आश्रय से ही हमारा विकास होगा और हो रहा है । अपराध भाव के विपरीत जो निर्दोषता है वह तो स्वयं में अपराध अनुभवित होते ही सहज प्रकट रहती है । अपराध का स्वयं में अनुभव होना ही अपराध का ना होना है , वास्तविक अपराधी कभी स्वयं में अपराध अनुभव नहीं करते है ...निर्मल भावुक को ही स्वयं में नित अपराध का भय रहता है । स्वयं में गुणों का आभास - दिव्यता आदि का आभास हृदय को द्रविभूत नहीं होने देता है ।
अतः अपने अहंकार और कर्तापन से विश्वास जो कि अपराध बोध से हट रहा है उसके प्रभाव से उनकी कृपा भी प्रकट होती जा रही है । कृपा को कस कर पकड़ लेना ही साधनों का महासाधन है । कृपा नित्य वर्षा है , परन्तु अपनी स्मृति भँग होने पर ही प्रकट होती है । जीव के अनन्त अपराधों पर भी प्रभु और प्रभु के गुणगान ने जीव का त्याग न किया , यह कृपा है । सब अपराध क्षम्य है परन्तु एक बार उन्हें भीतर विराजित कर कहीं अन्यत्र किसी विषय - स्थिति में तनिक मन अटका देना उन्हें कष्ट देता है । अतः अनन्य रूप अब उनके है । अपराधों को उन्होंने क्षमा किया इसलिये ही उनके प्रति प्रेम है , और नाम आदि मे रुचि है । अतः उनके इस विशेष कृपा को कस लेना है कि उन्हें अब भी अति प्रियता है , उनकी दृष्टि में कहीं कोई दोष नहीं दृश्य होता । जीव की मलिनता को भी वह निज-अभाव और निज प्रेम दान में अभाव समझते है । सम्पूर्ण वात्सल्यसिन्धु भी तो वही है अतः सब अपराध क्षम्य है , माँ की गोद मे भले शिशु मलमूत्र करें परन्तु उसे कष्ट नहीं । गोद छोड़ अन्य स्थिति-विषय-वस्तु से खेंले तो श्री करुण सुधा श्रीप्रभु को अपने प्यार में अभाव दिखता है । उनकी समस्त लीला जीव को कौस्तुभ मणि की तरह हृदय में स्थायी श्रृंगारित कर लेने की होती है । अतः इसी जीवन में बात बन जावेगी , दृष्टि और समस्त इन्द्रियाँ उनके प्रेम में उलाझाये रहिये । उनपर दृष्टि होने पर अपनी दोष स्थिति की ओर दृष्टि न होगी । परन्तु अपनी और केवल यही भाव होवें कि हमारी चाल और चालाकी हमें तुमसे छुड़ा देगी , तुम्हीं खेलों हम बस तुम्हें ही देंखे । अपनी और से हम उनके प्रेम कृपा का अनादर ही कर सकते है , और सदा करते है । उनकी हुए रह्वे तो वें हिय से लगाये रह्वे । अब वें हिय से लगाये रह्वे यह उनके प्रेम की महिमा है , अपनी ओर से हम चरण अनुराग स्थिर नहीं कर पाते । अतः उनका प्रेम जितना विशाल अनुभव होगा आप स्वयं को उतना उनका पाओगे और नित्य गहन अति गहन , नवीन अति नवीन , मधुर अतिमधुर वह आपको अपना प्यार देकर , आपके सम्बन्ध को स्थिर ही नहीं गहन करते रहने की  सेवा देंगे ।
रसिकन के आश्रय से हृदय पिघले । हम रसिक चरणों मे जाकर अपना हित बटोरते है , उनपर या जगत पर उपकार नहीं करते । परन्तु प्रभु को यह निज उपकार लगता है , अतः तत्क्षण जीव के भीतर वह फुले नहीं समाते । हम पर उपकार होता है रसिक चरणों मे , परन्तु हम उसे व्यक्त ऐसे करते है कि हमने ही उपकार किया है जगत पर । अतः शरणागति बड़ी गहन स्थिति है । वहाँ से हमें पिघलते रहना आना चाहिये । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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