जगत और श्रृंगार सेवारस , तृषित
*जगत और श्रृंगार सेवारस*
स्वरूपतः मूल में तो रूप-प्रेम का , रस-भाव का , अर्थात श्रीप्रियाप्रियतम का सम्पूर्ण सुख आह्लादित हो कर उन्हें नित्य सुखी कर रहा है ।
परन्तु भोग जगत को अपना पृथक सुख चाहिए जो नित्य और वृद्धि रूप किसी भी वस्तु में है नहीं । मूल स्वरूप के सुख में सुखी होने होने हेतु श्रीरसभाव युगल का अभिन्न श्रृंगार रस होना होगा ।
जीव जब तक देह-विषय आदि में है तब तक वह आध्यात्म और भक्ति पथ पर पृथक सुख हेतु आगे बढ़ रहा है । नित्य नवीन उत्सवों से सघन उन्मादित श्रृंगार रस केवल उन्हीं को स्पंदित करेगा जिनमें पृथक सुख नहीं रहा है , पृथक सुख उनमें होगा ही जिन्होंने स्वयं को पृथक ही माना हुआ है । मूल में प्रेम का विलास अनन्त गुणित सघन गूँथ कर श्रीयुगल को रिझा रहा है , वहीं जीव मानी हुई पृथकता के प्रभाव से नित्य प्रकट विलास उत्सव में स्वयं को अनुभव नहीं कर सकता । बात आती है नित्य बिहार के अधिकारी की तो जीवन के विषाद से विकट संकट में जिनके हृदय में कहीं न कहीं सुख की कोई मणि छपी है , वह अधिकारी है यहाँ विलास के । अर्थात जिन्हें जीवन का कोई संकट रुलाने में असमर्थ हो गया है ,जीव तनिक चिन्तन करें तो उसका दुःख स्थायी नहीं है । अतः कहीं न कहीं वह नित्यानन्द में भरा रहना चाहता है । सामान्य सा उदाहरण दे हम कि एक समय किसी परिवार में कोई परिजन शांत हुए , परिवारिक जन रो रहे खूब । हम उन्हें देख रहे , बड़ा गहन रुदन । समीप ही कहीं ढोल बज रहे किसी बधाई आदि के । वहाँ हमने देखा कि रोने वाला रो तो रहा है परन्तु हाथ पैर ढोल की बिट्स(ताल) पर थपकी दे रहे है । अर्थात रुदन मूल तक नहीं था , मूल में आनन्द ही है जिसका स्पर्श छुटा हुआ है , जितना स्पर्श छुटा है उतना स्वयं को प्राणी सन्तप्त पाता है । जिसके जीवन मे सँसार की प्रलय लीला से कोई शांति भंग ना हो , वह नित्य रस के स्थायी पात्र है । क्योंकि वहाँ उत्सव की नित्यता है , वहाँ की उपस्थिति अर्थात नित्य मंगलाचार-मंगलगान नित्य मांगल्य । प्राणी के हृदय में जब नित्य आनन्द के आनन्द सुधा से आनन्द सेवा हेतु आनन्दमयी सेवावृत्ति प्रकट होती है , तब वह जीव कहलाने का अधिकारी होता है , जीव वह है जो स्वभाव से हरिदास है । अर्थात जीव मान्यता में मानी हुई पृथकता भँग हो गई है । अब एक आत्मीयता है और वह है कि मूल स्वरूप सच्चिदानन्द की दास्यता का अनुभव प्रकट होना । वर्तमान क्षणभंगुर सुखों में भागते प्राणी में दास्यता की ललक भी कहीं सुनाई दे जाती है तो वह मानता स्वयं को भगवत पथिक है परन्तु सत्य में पृथकता मिटती नहीं है , दास्यता के पथ को देखना - सुनना - समझना - अलग है । उसमें डूब जाना अलग स्थिति है , हनुमान जी को तो बहुत लोगों ने देखा है जिनमें धर्म का मर्म प्रकट नहीं । परन्तु कोई उनकी सेवा को अनुभव कर हरि भक्ति की याचना करे तब उनके हृदय में भगवत दास्यता का सुख प्रकट होता है । वह दास है , इस स्थिति का अनुभव होने पर मैं इनका दास हूँ यह स्थिति प्रकट न हो तब तक भेद है । किसी राजा के परिकर को देख हमें अच्छा लगता है परन्तु मन मे हम सभी ने स्वयं को विषयों का बंदी माना हुआ है । जो कारावास में बन्दी है वह दास कैसे होगा , जीव विषयों द्वारा बन्धित है । अतः दास को देखता है , स्वामी को भी जानता है परन्तु अपने हृदय में स्वामी के प्रति प्रेम नहीं है । स्वामी भाव से प्रेम सेवा ज्योँ ही प्रकट होंवें दास्यता प्राप्त हो जावे ।
अर्थात जीव इसलिये नित्य श्रृंगार का अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि उसकी मान्यता में वह पृथक है । और उसकी मानी गई पृथकता को उसकी अपनी लालसा और हरिकृपा की संधि के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं मिटा सकता है । कृपा और लालसा से माने गए भेद मिट सकते है , वरण प्राणी सम्पूर्ण जीवन हनुमान चालीसा पढकर स्वयं को हनुमत दास नहीं बना सकता तब श्रीराम केंकर्य वहाँ से चाह लेने का लोभ कैसे उद्भवित होगा । वही चालीसा श्रीराम का दास्यत्व दे रही है और उसी के पठन-मनन से जीव विषयों की लालसा कर रहा है । अर्थात जीव लालसा के अभाव में समस्त वेद-मन्त्र आदि उपासना-साधनों से बन्धन मुक्ति की अपेक्षा विषय बन्धन की दृढ़ता ही चाहता है । जिसके हृदय में पृथकता छपी है उसे वह स्वयं और श्रीहरि मिटा सकते है । सन्त भी यहाँ कृपा की एक लीला रूप सुधा वर्षण करते है , परन्तु जीव में पृथकत्ता ही स्थायी है तो वह सत्संग काल मे उस पर कृपा हो रही इस भाव के अभाव में सो जावेगा , अथवा कहेगा कि इन्हें वाचन का अभ्यास नहीं । सात्विक दोष रूप कहेगा कि मैं इस रस में अपात्र हूँ ।
हम जो बात करते लिखित व वाणी सेवा से वह श्रृंगार रस है । वहाँ श्रीयुगल श्रृंगार सेवाओं से अभिन्न आस्वादन है । श्रृंगार रस भावप्रेम का ही श्रृंगार करता है यहाँ । यहाँ श्रीयुगल में श्रृंगार भाव रस में प्रेमास्पद की रूचि और सुख को बढ़ाता है । यहां रेणुका से अनुराग लालसा है क्योंकि रज कणिका प्रेम-श्रृंगार की झरण ही है ...जिनमें फूल-फुलनि प्रियालाल के अप्रकट भाव ही नवीन मंजरियों के रूप झर रहे है , यह झरते भाव उसी अप्रकट प्रेमभाव की सेवार्थ वृत्ति हो गहन सुख दे रहे है श्री युगल को । यह अति गहन स्थिति है ...कि केवल बात नहीं उनकी , केवल झाँकी नहीं उनकी , केवल सँग भी नहीं उनका , केवल सेवा देखना भी नहीं , केवल सेवा करना भी नहीं ...हमारा रस है सेवा ही हो जाना । वह उन्माद , वह फूल - वह लता - वह हिंडोरा - वह रज - वह श्रृंगार - वह रँग - वह प्रेमरस हो जाना जो उन्हें सुख दे रहा हो । श्रृंगार रस है , श्रृंगार वत अनुभव । अभी जीववत लालसा का अभाव है जीव में । श्रृंगार सेवाओं की अभिन्नता तो जब ही अनुभवित होंवें है कि जब स्थिर चित्त में छबि निहारी जावें और वह छबि चलायमान हो जावें और उस छबि में सर्व रूप जो व्यापक श्रृंगार रस है उनका अनुभव प्रकट होने लगें । जैसे झूले पर बैठे श्रीयुगल की छबि देख कर जीव जडता में सोचेगा यह झूले पर मैं बैठ जाऊँ । जड़ता अहम को पुष्ट करती है , फिर प्रेमी झूले पर बैठे हुए देख हर्षित होगा । दूसरा प्रेमी वहाँ भावना कर उस झूले को झुलायेगा । तीसरा प्रेमी झूलते हुए छबि को रमक-रमक कर झूलते अनुभव करेगा । फिर श्रृंगार रस की कृपा से किसी प्रेमी का हृदय ही हिंडोरा हो गया है उसके हृदय पर ही प्रियाप्रियतम झूल रहे है ...यह है सेवा से एकात्मक होना । यहाँ युगल के सुख के उस झूले के भावों को जीवन रूप अनुभव अत्यन्तम कृपापात्र स्थिति ही कर सकती है क्योंकि वर्तमान जीव सेवा के मर्म को बाहर ही नहीं अनुभव करता है तो भीतर कैसे उससे एकांतिक हो सकेगा । अतः व्यवहार शेष होने पर , प्रपञ्च के चक्कर शेष होने पर श्रृंगार रस समझ नही आ सकता है यहाँ भोगी-जीव कहेगा रस नहीं मिला ...उसे रस मिलेगा प्रियाप्रियतम को उतार कर झूला उसे ही दे दिया जावें , वह सभी परिचितों को अपनी महिमा बतावें तब । भोगें बिना सम्पूर्ण भोग का सुख प्रेमास्पद की सेवा में छिपा है । इस झूले पर जितने मधुरातीत मधुरतम श्रीयुगल लग रहे कोई अन्य न लगेगा । परन्तु जीव सेवा के मर्म को नहीं जानता है । सेवा का मर्म है , सेवा ही हो जाना । श्रृंगार अर्पण नहीं करना , श्रृंगार हो जाना । अर्थात अपने प्रेमास्पद श्रीयुगल की सम्पूर्ण सुख स्थली हो जाना । सो यात्राएँ जारी रहती है ...सेवा ही निजता में प्रवेश करती है । तृषित । जयजय श्रीवृन्दावन । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । हमें वाचिक रूप समझने हेतु उपाय यही है कि श्रीयुगल की छबि को नयनों के मधुरतम होकर फट जाने तक निहारिये । फिर नयनों में झाँकी ही हो जाने का स्वाद उतरेगा ।
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