जीव भाव भँग लीला , तृषित

जीव भाव भँग होने पर स्थायी नित्य भाव-जीवन जो प्रकट होता है , जब तक वह भाव स्पर्शित होता है । तब तक नित्य स्वरूप स्वभाव ही रँग-सँग स्वाद दे और लें रहे होते है । भाव स्वरूप ऐसी मानसी में भीगी अवस्था का जगत से कोई सम्बन्ध नहीं है । जगत के सँग हेतु नित्य सँग अदृश्य हो जाता है , नित्य सहचर स्वरूप का अनुभव नित्य भावरूप ही लेते है ।  जैसे सामान्य रूप जगत में मलिन भूत प्रेत के मन की जीव नहीं जान सकता , न उनकी क्रिया का अनुभव कर सकता है , भूत-प्रेत अर्थात देह छूट गई परन्तु विकार ना छुटे । वैसे ही अति निर्मलतम दिव्य भावदेह की क्रिया आदि का अनुभव जीव को हो नहीं सकता । क्योंकि प्राकृत सत्ता का एक परमाणु भी रहने पर अप्राकृत सत्ता का विलास अदृश्य है । और उस रस के विलासी का मर्म विलासी ही समझता है , जैसा कि रसिक की रसिक जाने कहा जाता है । परन्तु प्राकृत स्थिति शून्य होने पर अप्राकृत स्थिति का एक परमाणु (रजकण) भी छू जावें तो वह छुअन छूट नहीं सकती । वह रस-भाव-दशा सब नित्य है । फिर भले उस छुअन का अनुभव अदृश्य होंवें परन्तु वह छुअन बनी ही है । जितनी अप्राकृत स्थिति रह्वेगी जगत उतना ही स्वयं अछूता रहेगा । जैसे फिल्मों में आप देखते है कि कोई आत्मा किसी वस्तु व्यक्ति को छूवे तो छु नहीं पाती । यह दोष नहीं है , गुण है कि अप्राकृत स्थिति पर प्राकृतस्थिति का संयोग होता ही नहीं है । अप्राकृत करुणा भलें उमड़ उमड़ कर बहे परन्तु वह प्राकृत अविद्या माया के रोगी को अनुभवित होती ही नहीं है । उस अप्राकृत आस्वादन के रहते हुए प्राकृत जगत का सँग स्पर्श कितना ही होंवें , वह केवल नित्य श्रृंगार सहित प्रियाप्रियतम का सेवा स्पर्श ही होता है ।
स्थायी आस्वादक नित्य अनन्य रूप इसी सुधा में निमज्जित रहते है । अनन्य रूप आस्वादक को जगत बाहर से देख सकता है , परन्तु सँग नहीं कर सकता । वहाँ सँग होने हेतु दिव्य चिन्मय अप्राकृत श्रीनित्य विहार से अभिन्नता ही चाहिए । अतः अनन्य एकांतिक ही रहते है , लौकिक स्पर्श उन्हें होता ही नहीं , उनके पास जो नित्य सरस् चिन्तामणि है वह जो दिव्य आस्वादन देती वह जीव-भाव भँग होने पर नित्य मधुर श्रृंगार रस प्रकट होने पर ही अनुभवित होती है । शेष वह अप्राकृत स्वरूप दैहिक होते ही नहीं , जैसे आत्माओं का संवाद अप्रकट है वैसे ही दिव्यातीत दिव्य महाभावनाओं का संवाद वहाँ अदृश्य है । इसलिये बहुत श्रोताओं को वह भावनाद सुनाने पर भी स्पर्शित नहीं होता है । कोई हजारों लाखों में एक जीव उस पुकार का अनुभव कर सकता है , और फिर वह जीव जगत में लौट नहीं सकता । वास्तविक स्थिति में जो सुन पाता है ऐसे नित्य चेतन परिकरजन की , वह ही उनका अप्राकृत संगी होता है प्राकृत दृश्य भर । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

किसी नेत्रहीन को विवाह उत्सव ना दिखे तो ऐसा नहीं कि वह उत्सव है ही नहीं । जीव को भगवदीय रसप्रेम करुणा का दर्शन भलें न हो पर वह है ही । रसिक सन्तों के पास ऐसे नित्य उत्सव की नित्य निहारन भरे नयन है । उनके नयनों की इस निहारन को हम वैसे ही सुनना प्रारम्भ करें जैसे नेत्रहीन दृश्य उत्सव के रोमांच को सुनकर अनुभव करना चाह रहा है । तृषित ।

छुआ ना जा सकें तुमसे
उनकी वह छुअन
दौड़ती रही ...
तुम्हारे पीछे तुम्हें छूने को । *कृपा* । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय