तँग या सँग , तृषित
अनन्त ब्रह्मांडों को निरखता हूँ
जब तुम सबको सन्मुख पाता हूँ
कथित सर्व एक है ,
आभासित होता यूँ कि सर्व तो बस मेरे मैं का हेतु है ...
यहाँ सबका अपना ब्रह्मांड है
ब्रह्म को शुन्य पाता अपना-अपना ब्रह्माण्ड है
बाहर के नीले अम्बर में , भीतर बहुतों रँग के आकाश सुन्न है
तुम्हारा ब्रह्मांड ध्वस्त होगा , मेरा ब्रह्मांड इतना विशाल होगा ...
विचित्र ब्रह्मांडों का परस्पर युद्ध है
विचित्र सिद्धियाँ यहाँ फैल रही ...
झुकती कंदरा - ब्रह्मांडों से फुट रही ।
न तू मेरा है , न मैं तेरा हूँ ...तेरा मेरा हो सँग
पर
मेरे ब्रह्माण्ड में छ्त्र मेरा है ।
न जहाँ अहम का डेरा है...
वहाँ भी चाकरी में दिखता तेरा मेरा है ।
विचित्र तुम सब ब्रह्माण्ड हो , सँग हो पर तँग हो
वो एक साँचा ब्रह्मांड प्रेम फूला हँस कर पीड़ा दबाता होगा जो सँग कर न सकें कहीं ऐसे फूले मैं मैं में वो
सत्संग कहा यहाँ सत-तँग तुम मनु भरे हो
सँग तुम छोड़ , मैं के पिंजर में तँग से भरे हो ।
कल कहते सब संग महिमा , आज तँग महिमा परोसते हो
*तृषित*
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