चेतना को एकत्र रखिये , भटकिये मत । तृषित
देखिये जगत नित्य अखबार पढ़ता है , उससे कल्याण नहीं होने वाला है । न किसी लेखक के प्रति वह जीवन भर भाव बना पाता है । अतः हमारी बातों का केवल पाठक रहकर बात न बनेगी । उस पाठ को जीवन से अभिन्न कीजिये। ना हो पा रहा तो लालसा कीजिये ।
प्रथम जीवन को प्रगाढ़ संयमित करें हम । समेट लें चेतना को सब ओर से । मन जहाँ जहाँ वहाँ वहाँ हम उपस्थित है कारण रूप । अतः एकत्र करें अपने बिखरे हुए प्राण को । संगठित प्राण को जैसे ही एकत्र किया जाएगा उसे प्रगाढ़ता से सब ओर से छुड़ा लिया जाएगा और एकत्र उस सँगठित सम्पूर्णता को लेकर आप कोई निर्णय भी नहीं कर पा रहे है । हृदयगत जीवन की कोई दिशा नहीं प्रकट हो रही है तो वह इसलिये ही कि प्राण एकत्र ही नहीं है , मन सँग चहुँ ओर बह रहे है । एकत्रित प्राण स्वतः हृदय में जीवन खोज लेते है । सारा भक्ति पथ , भक्त सँग , भाव , भजन अपने प्राणों को एकत्र कर हृदय में भर लेने पर स्वतः प्रफुल्ल होता है । हृदयगत भावजीवन ही प्रेम जीवन है । यह जीवन प्रपञ्च सँग व्यर्थ करने हेतु नहीं है । स्वयं को अपने ही हृदय में छुपा लीजिये । निर्विकल्प रहिये आप जैसे ही एकत्र हो सकेंगे प्रेम द्वारा स्पर्शित हो जायेंगे । मन पूरा हृदय में आता है तो ही उसकी रसप्रभु द्वारा चोरी होती है , उस चोरी में ही राजी रहने पर भाव जीवन प्रकट होता है । तो केवल पढिये मत , भीतर उतरिये । स्वयं को बिखरने से एकत्र कर निज हिय में भर खड़े हो जाइए प्राणों को लूट लिए जाने को । हम शरणागत नहीं हो सकते अहंकार की महिमा ही ऐसी है हमें तो हरण चाहिए । हरण ही हो जावे हमारा । जिनका प्रेम में स्वयं का हरण हुआ हो वह ही हरण करने में समर्थ एकमात्र मनहर प्रियतम है । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । नाम-भजन प्राणों को एकत्र करने पर ही स्वाद देता है । पूरा रिक्त होने को स्वयं को सर्वता छुटा ततस्थिति में पूरा रखिये । मन का भटकना , जीवन का भटकना है । श्रीवृन्दावन । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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