सघन अदृश्य , तृषित
*सघन अदृश्य*
सामान्यतः एक स्थिति होती है जहाँ प्रेम प्रकट हो जावें तो महतिकृपा है । प्रेमास्पद का दुर्लभतम सँग मिलें तब भी अति सघन कृपा ही है ।
वहीं प्रेम में एक स्थिति है , गहन (सघन) गाढ़ जहाँ प्रेमी को प्रियतम सँग में भी अलभ्य सुख होकर भी दृश्य की अदृश्यता रहती है ।
दृश्य प्रकट होता है दर्शनलालसा से और दर्शन भाव प्रकट होने पर नित्य सरसतम और और सरसतम मधुरतम होते जाते है ।
भाव विहीन स्थिति में भगवत स्वरूप दर्शन प्राप्त नहीं होते , होंवें तब भी उन दर्शन में भगवदीय स्वरूप अनुभूति नहीं होती क्योंकि भावना का अभाव है । जैसे श्रीबांकेबिहारी - श्रीराधावल्लभ आदि दर्शन सर्व सामान्य को सुलभ्य है , परन्तु भाव विहीन को दर्शन सुलभ होने पर भी भावना के अभाव में आस्वादन नहीं मिलता । सन्मुखता में भी सरसता जब ही अनुभवित होगी जब भावना स्थिर होंवें । वहीं प्रेमी भावुक जन को भावातिरेक स्थिति प्रेमोन्माद स्थिति होने से क्षणिक दर्शन पान कठिन हो जाएगा । अति सघन प्रेमी से निहारते न बनेगी , वहाँ भावना इतनी सघन होगी कि आस्वादन की अति मधुता में चित्त छबि को सन्मुख पाकर भी आकृति नहीं दे सकेगा । अति मधुता की स्थिति में एक एक अंग माधुरी में नयन और मन डूब जावेंगे , सम्पूर्ण मधुर झाँकी का आस्वादन पीना अति कठिन रहेगा , और पीने पर उसे भरना महावेशित करेगा । ऐसे प्रेमी को प्रियतम के दर्शन की स्मृति ही हृदय द्रवित कर देगी और नयन सजल होने लगेंगे जिससे दर्शन की मधुता भीतर भरने से पूर्व जैसे बाहर ही टपकने लगेगी । वाणी - नयन आदि इंद्रिय ऐसी स्थिति में अति व्याकुलता से असमर्थ हो जाती है । हृदय में तब ऐसे सघन भाव बाह्य इंद्रियों से प्रकट न हो सकेंगे केवल प्रतीति भर झलकेगी भावझाँकी का पूरा चित्र नहीं गढा जा सकेगा । जगत में प्रेमी की ऐसी स्थितियाँ होती तब प्रेम की महासुधा महाभाविनि श्री किशोरी जू की गहनतम आस्वदनीय स्थिति कैसी अद्भुत अगम्य उच्चतम भावसुधामयी दशा होगी । दोनों परस्पर प्रेमोन्माद और उत्साह में अति मुग्ध हो स्वयं की सुध-बुध खो देते है , वहाँ तो प्रेमास्पद का नाम श्रवण मात्र से ही निजता मूर्छित होने लगती है ।
सरस् सहज निर्मल युगल रस की झाँकी का आस्वादन इन्द्रिय परक रस नहीं है , वह तो भावरस है । ज्यों ज्यों भाव सरोवर में रस बढ़ेगा हृदय में मधुता की सुंदर कलियां और सुंदर होती जाएगी । यहाँ दोनों प्रियाप्रियतम प्रवाहित परस्पर अंग -गन्ध से ही भाव समाधि में डूब जाते है । प्रेम की सम्पूर्ण सघनता अति गम्भीर गहन सुधा है , जितनी सूक्ष्मता से प्रेम प्रकट है उतनी ही सूक्ष्मतम भावनाओं से आस्वादनीय स्थिति अप्रकट होने लगती है । प्रेमास्पद के प्रति इतना सघन प्यार वहाँ होता है कि उनके दर्शन - भावना को सहजने वाला पात्र ही (स्वयं को) सम्भालना कठिन हो जाता है । जैसे अति मधुसुधा में कच्ची माटी की मटकी जलनिधि को भरने से पूर्व गलित होने लगें । ऐसे प्रेमास्पद की अति मधुता में प्रेमी सम्पूर्णता से डूब जाता है तब वहां मधु आस्वादन में आस्वादय के होने पर आस्वादक की सत्ता नहीं रहती । तू रह जाता है , मैं खोता जाता है और यह खोवन स्थिति अति मधुकर सरस् होती है जहाँ प्रेमास्पद की अनन्त माधुरियों के बाणों से सम्पूर्ण प्राण बिंधे होते है । कितना कह्वे , सहज प्रेमी तो प्रेमास्पद की चरण रज की एक कण सँग भी अनन्त प्रेमभावों के गोते में भर भर कर डूबते ही जाते है । एक चरण रज कणिका की मधुता ही असहनीय मधुतम होती है । प्रेम में प्रेमास्पद का मधुतम प्रभाव फुलता फैलता जाता है , अपनी लघुता भी और लघु होती जाती है । प्रेमास्पद का प्रभाव , अपना अभाव और इसी स्थिति में आस्वदन अति अलभ्य निधि होता जाता है । वहीं सामान्य स्थितियों में हम भावहीन रज में लोट भी लेंवे तो हमें कोई क्षणिक प्रेममयी अनुभूति नहीं होती । अपनेपन के बढ़ते जाने से प्रेमास्पद की आभा-प्रभा और आवरण क्षेत्र ही सम्मोहनिय होने लगता है । तृषित । सघन वन में सूर्य प्रकाश की किरणें धरती पर छूने में असमर्थ होती है । सघन घन आकाश में होने पर नीलाम्बर की नीलिमा श्याम घनलताओ में छिप जाती है । दृश्य होता है परन्तु प्रेम का अपना ही अतिमधुर आवरण है जो प्रियता बढ़ने सँग बढ़ता ही जाता है और खिलती-फूलती गहन होती जाती है रसिली प्रीति वल्लरियां इन प्रेम निकुँजों में तथा झूमता- उमगता-सरसराता-प्रेमोन्मादित श्रीवृन्दावन । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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