सेवा आतुरता (खैरियत) तृषित

सेवा-आतुरता (खैरियत)

एक माँ का बच्चा बीमार हो वह भगवान से उसकी खैरियत के लिये मिन्नते करें , कई उपाय करें और इस दौरान लोग भगवान से जुड़ने के कारण उसे लोग भक्त कहने लगें । मिन्नत पूरी होने पर आस्था पक्की होवें तो वहाँ और आवागमन बढ़े , लोग भक्त से प्रेमी कहने लगे ।
पर वास्तव में वह भक्त है अपने बालक की , प्रेम करती है सन्तान को ।
प्रेमी चाहता अपने प्यारे की खैरियत । हम सब जिसकी खैरियत चाहते उनसे ही हमें स्नेह या प्रेम है ।
पर बहुत कम लोग श्रीठाकुर जी की ख़ैरियत चाहते है ।
वही रसिक सन्त जन उनकी बड़ी सहजता से ख़ैरियत करते है।
भगवान को भगवान ही मान प्रेम सम्भव नहीँ , और उन्हें प्रेमी पाकर फिर जगत में अन्य वस्तु में प्रेम नहीँ , हाँ भगवत प्रसाद , भगवत दर्शन आदि से वस्तु का महत्व बदल जाता है पर इसमें वह वस्तु वहाँ होती ही नहीँ , वहाँ केवल प्रेम होता है ।
सन्त और  प्रेमी जन भगवान को विषय सिद्धि हेतू वस्तु  (मेटेरियल) नही मानते ...प्रकट उनके सँग को जीवनवत अनुभव कर रहे होते है ।
सरल प्रेमी हृदय के लिये उनका ख़्याल जरूरी है । सन्त श्रीराम की ऐसे फ़िक्र करते जैसे नन्हें बालक की की जाती हो ।
हम सब उपवास रखते है , कारण कुछ न भी हो तो यह भीतर कामना रहती है कि भक्ति प्राप्ति हो , परन्तु सहज प्रेमी तो अपने प्रियालाल के सुख के लिये ही सब जी रहा होता है ...सम्भव हो विचित्र स्थिति भी हो वहाँ ...। वह मर-मर कर भी प्रेमी के सुख को जीता है और जी-जी कर भी प्रेमी के हेतू सुखों की खोज मे मरा हुआ रहता है , अपने प्यारे के लिये ।
प्रेम हो गया तो स्वतः सेवा होगी , स्वतः उनकी फ़िक्र रहेगी , स्वतः उनका ख़्याल होगा सदा । फिर सही- गलत , धर्म - कर्म का एक अर्थ शेष रहता है उनके लिये सुख हो बस ।
हमारे प्यारे श्यामाश्याम नित्य मिलित परन्तु फिर भी प्रेम तो बावरां होता है न ।
हम यह व्रत करें कि अपने प्यारे प्यारी के लिये उनके प्रेम रस को कोई कष्ट न हो , उसमें भाव मात्र आक्षेप भी न हो , उनके सुख की सोचे ।
चिंतन करें । उनके परस्पर प्रेम हेतु आंतरिक सेवामय रहे ।
कभी जीवन में कोई अवांछित बाह्य हरकतें होती तो हमें कष्ट होता कि युगल संग है उन्हें भी कष्ट होगा ।
युगल बड़े सहज है , सरस है । थोड़ा ही बाहर की उथल-पुथल अंदर छुई तो वह भीतर अदृश्य हो जाते है । तब पीड़ा होती है ... अधिक बाह्य संग से आंतरिक रस बाधित ही होता । परन्तु बाह्य संग से युगल को सुख मिलता हो तो हम तो निकुंज भवन के बाहर ही सदा पड़ी रहे , भीतर का स्वप्न भी न करें ।
युगल को जो सुख हो , बस वही मुझसे भीतर बाहर हो । उन्हें दुःख देने वाली हरकत से पहले प्राण छूट जावें ।
बाह्य जगत के लिये ईश्वर स्थिर रसभाव पर है ...उन्हें क्या सुख देना - लेना । परन्तु प्रेम में सब होता है ...सब , पीडा भी उल्लास भी  ...उन्हें संग जिया जाता है बकायदा जीवनवत।
वर्तमान में मिक्स लोग हो गए हम , प्रेम पथ के रूप भी उन्हें चाहते और  उनके निर्गुण व्यापक रूप को कह कर साथ ही कह देते , अजी मूर्ति कौनसा भोग सच में लगाती है । यह हम है आज के कथित भक्त ।
प्रेमी के लिये तो वह क्रियात्मक  ही है ...हृदय उन क्रियाओं का अनुभव कर रहा होता है ।  श्रीविग्रह के सप्राण होने की बहुत कथा हम सुनते है परन्तु भावात्मक सम्बन्ध उनसे क्यों नहीँ हो पाता , मुझे समझ ही नही आता।
प्रेमी तो पग पकड़ते तो लाडली-लाल के , आशीष भी देते - लेते तो लाडली-लाल को । लाडली तेरो अविचल रहियो सुहाग ।
निरखुं श्यामाश्याम एक हि बेली ।
चाह भी प्रेमी ऐसी करते जिसमें उनका सुख हो । यह सब स्वतः होता अगर प्रेम है तो आप स्वयं को सोचते ही नहीँ केवल प्रियाप्रियतम को जीते है प्रेम में ।
बहुत लोग कहते दर्शन करना है प्रत्यक्ष (दर्शन और प्रेम एक बात नहीं)। अब कैसे कहें उनसे दर्शन की जगह सेवा-लालसा होती , उनके सुख की दिल में कोई बात उठी होती तो हम नित चरण-चाप रहे होते । अपने लिये उन्हें कभी न पाना , उनके लिये उनका होना , हमारा कुछ ऐसा ही ... सेवा लालसा  --- तृषित ।।।वर्ष 2016भाव।।। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी।।।

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