बौद्धिक संसृति - तृषित
*बौद्धिक संसृति*
इस धरा पर जो जितना बाह्य समृद्ध दिख रहा है वह उतना ही निर्धन भीतर है । उसे पुस्तक या सर्च इंजन (गूगल) की सख्त आवश्यकता प्रतित होती ही है । मौलिक रूप यह आवश्यकता है समग्र अनुभव की । या कहिये सम्पूर्ण आश्रय की ।
एक और कथित बौद्धिक सदा अपनी बुद्धि सँग भीतरी बाह्य सृष्टियों में आश्रय रहित जगत रचते रहे है जिसका आधार है अहंकार ... चूँकि यह धरा प्राकृत संसृतिमय है सो यह स्वयं को पृथक् प्रकट करते कथित आध्यात्मिक महत्वकांक्षी भौगोलिक खेलों में फँस गये है ।
कहने का तात्पर्य इतना ही कि लोक व्यापार में फंसी कोई भी स्थिति ...पारलौकिक सहज बुद्धता को नाप नहीं पाती है । इसलिये हमारे यहाँ की संस्कृति में बुद्धता का अवतरण है ।
दूसरी ओर धरा पर अबोध परन्तु बद्ध प्राणीवत मानव है जो कि अति रुग्ण अवस्था भरी चेतना है जो कि तत्काल भगवान बना लेते है । वस्तुतः ज्ञान की चरम स्थिति है व्यापत ब्रह्म का अनुभवित जीवन । परन्तु ज्ञानी से अतिज्ञानी भी जहाँ भगवत्ता ना देख सकता है वही यह अबोध परन्तु लोक संस्कारों में बद्ध यह भोले जीव प्राण देकर कथित भगवानों की बीड़ी जलाते रहे है । यहाँ भक्त से किसी लोक-वाँछा के बदले उसके खेत में पानी की दिशा बताते यह सिद्ध हुई स्थिति को हम बीड़ी कहे है अर्थात् यहाँ जीव अपनी लोक बद्धता को भंग नही करना चाहता है और उसी लोक बद्धता को कोई स्थिति दिव्य आवरण दे रही है तो वह दिव्य स्थिति अपनी दिव्यता को बीड़ी में फूँक भर रही है ।
मैं यहाँ यह नही कह रहा हूं कि कोई यहाँ दिव्य ही नहीं है । यह प्राणत: ऐसा देश है जिसमें से सब मिटाया जा सकता है संस्कार से भरी दिव्यता नही मिटाई जा सकती है । यहाँ दिव्यता ही दिव्यता भरी हुई है ...कभी कोई रात सडक पर निकलें तो देखियेगा कि श्वानों में भी कोई पारलौकिक संस्कार मिल सकते है यहाँ ।
तो कहने का तात्पर्य है एक और सम्पूर्ण शास्त्र को अमान्य कर हुये कथित बौद्धिक । क्योंकि वास्तविक बौद्धिक के लिये शास्त्र का अक्षर-अक्षर दिव्य-उत्सव है । श्रुति स्मृति रूप सम्पूर्ण धर्म-शास्त्र से परे होने पर जो स्वयं को हृदय से अबोध माने वह ही वस्तुतः बौद्धिक है । वेद-शास्त्र भी वह जो मानवता से प्रथम प्रकट हुये हो ... उसकी भुमिका हेतू ।
...और दूसरी तरफ है विशाल समुदाय जो स्वयं में समग्रता नही पा रहा है और विचलित है जिन्हें वैचारिक आश्रय चाहिये ।
यहाँ अविद्या मण्डल में वास्तविक चेतन स्थितियों को जीवनोत्तर ही माला धारण कराई जाती है और यही माला कथित समग्रता पहन लेती है ।
यहाँ निवेदन कर दे कि प्रत्येक चेतना सम्पूर्ण दिव्य है अगर वह निष्काम रूप सेवात्मक भर है सो गाँव-गाँव सभी ने ही कोई न कोई सिद्ध स्थिति आँखों से देखी ही हो । परन्तु यह दिव्यता कामना ना होने तक ही जीवनमय है ... कामनाओं की आँधी में दिव्यतायें केवल परस्पर कामनाओं की चलती तलवारें भर है ।
यह मेरी बात आज बेतुकी लग सकती है परन्तु अगर आज भारतीयों में दिन प्रतिदिन असन्तोष है तो उसका कारण है असत्यवादिता । सत्यवादी राम के आक्रोश में रावण समक्ष भी धैर्य नित्य है ...सत्य नित्य गम्भीर है और असत्य गंभीरता का नित्य स्वांग नहीं कर सकता । अपितु सत्य नित्य संकोची भी है ।
संकोच सत्य का वह स्वरूप है, जिसे सभी तलाश रहे होते है क्योंकि हमारा जीवन अन्तरंगताओं से भरा है ...यहीं अंतर्निहित अंतरंगता हम प्रकट करने हेतू विश्व व्यापार में खोज रहे होते है किसी ऐसे अन्तर्मुखी को जो हमारा हृदय पढ लें । शेष अगले लेख अंतरंगता में ..कारण कि कथित बौद्धिक जो सारी बुद्धि इन बातों में अपना नाम चिपकाने में लगाते है वह भीतर की सहज रिक्तता अनुभव कर दूसरे पाले (अबोध) में बैठ किसी छोटे चबूतरे पर भी दीपक सजा कर नित्योत्सवी हो सकें । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । (कुछ प्रेमी यह भी कहते है कि आप भावों पर नाम क्यों लिखते है तो यहाँ एक उत्तर यह भी है कि मिटाने वालों की रोजगारी हेतू)
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