सटरडे सन्डे और वृन्दावन । तृषित
सटरडे सन्डे और वृन्दावन
छः दिन की माथा पच्ची । छः दिन व्यसन की तरह भोग जगत । और और और तरीके छः दिन , काश हर माह नई कार ही होती ।
फ्राइडे थक कर चूर , संसार को खाने चले संसार ही दिलो दिमाग खा गया । लो सब हजम हो गया तब दो दिन की छुट्टी में याद आ गए बिहारी । सटर डे सन्डे और नया उभरता स्पॉट । गाड़ियों की रेलमपेल । धन्यवाद जिसने इंजन बनाया । वरना वृन्दावन सच में वृन्दावन होता । यह आधुनिकता कौनसी दौड़ती हुई आती यहाँ । बिहारी जु के दर्शन रात 10 बजे भी कोई धाम आये पूछेगा , बिहारी जु पट खुले है न । हाँ जी , उन्हें और काम ही क्या ?
आराम से कीजिये दर्शन , मैं तो कहता हूँ 24 घण्टे कीजिये । फर्क क्या पड़ता है , विग्रह ही तो है । कौनसा सत्य स्वरूप है ।जो विश्राम भी करेगा । प्रसाद बिक रहा भीतर यह दोष नही , यह तो उनकी आवश्यकता जो बेच रहे ... प्रसाद खरीद रहे भीतर यह दोष है । जो बेच रहे उन्हें सहज ही तृप्त कोई कर दे तो बिहारी जु चेन से खड़े हो , सुन्दर श्रंगार हो । पर मेरा प्रसाद , मेरी माला , बिहारी जु जिन्हें रस राज्य में श्वसन स्पंदन से विक्षेप होता हो उनके सन्मुख ऐसा शोर की अहा ... तमाशा सा लगता होगा सब उन्हें या पीड़ा होती होगी राग रागिनी से झरे इस सहज स्वरूप को यह तो कोई सहज रसिक जाने ।
कौन देख सकता है यह स्वरूप ?? सरे आम वह हर किसी को बावली बना रहे , बावला नही । बावली । बावली ही देख सकती है यह निभृत दर्शन झाँकी । उसी का अधिकार । जिसने देखे वही बावली , हाँ वह फिर अनुभूत न करे कि हो गई मैं प्रियालाल की बावली तो इससे शायद उठती हो किसी सहज हृदय में कोई पीड़ा । ना पीड़ा नही होती , सहज हृदय की करूणता ही यह है की उसमें पीड़ा नही होती । हाँ परन्तु परस्पर पीड़ा अनुभूत होती सहज चित्त को ।
आश्चर्य इस धरा पर ऐसा रस स्वरूप है, और उन सँग विषयी सविषय स-अंहकार ... सच्चा आश्चर्य तो यह है ।
खूब खरीदिये माला प्रसादी । फेकिये या लड़िये । पर लौटते समय सब बाँट कर निकलिये , सब । अपने अहंकार को छुपा कर नहीँ , प्रसाद खरीदा नही जाता , खरीदने का अपराध हुआ तो ममत्व का त्याग हो , पूरा बंट जाये तो हृदय को अनुभूत हो अद्भुत कृपा ।
पर इतना महँगा खरीद बँटेगा कौन ?
2 पैसे में हार गया संसार । किसी ने अपनी निधि सर्वस्व में सौंप दी ... सहज प्रकट कर दी । और कोई समझ ना सका यह दिव्य मिलन स्वरूप झाँकी । अरे ... नव विवाहित दम्पति घर होते रात्रि में तो क्या यह संसार ऐसा ही रहता है । यह तो नित्य नवदुलह दुल्हन की मिलन झाँकी है । सहज सुकोमल नेत्र से इस रसित युगल स्वरूप को वाणी शुन्य होकर पीते हुए भीगे नेत्रो में कही छिप कर दर्शन कर रहे किसी रसिक चित्त से उसके नेत्र मांगिये । पर वो शायद बिकाऊ न हो , दृविभूत हृदय पर उपकार कर दे तो फिर देखिये कौन खड़ा और कैसे और हो क्या रहा ... जाते जाते पूछ जाइये ... क्या तुम सुखी हो वृन्दावन निधि श्री बिहारी जु । ... 6 दिन फिर लूटमार , ओह सॉरी । बिजनेस । यह शब्द सुन्दर है ... स्वार्थ भोग जगत का ... बिजनेस । कीजिये खूब बिजनेस । वो तो खड़ा है , खड़ा रहेगा ।
ब्रज वासी से नमन ही कीजिये उसे ह्यता से मत देखिये । उसे प्रसन्न कर दीजिये ... बाहर से ब्रज वासी कैसा भी हो , हृदय से उनका है । चाहेगा तो मिलते रहोगे , बड़े शहर वालों ... वृन्दावन में जो आज वन लगता नहीँ क्योंकि आपको - हमें होटल के ऐसी बिन नींद जो नहीँ आती ... !!! ... पर केवल वन और कुञ्ज है यह , इसका स्वरूप पूर्णतः विशुद्ध ही रहेगा । दुकान - होटल कुञ्ज दिखने लगे तो भोग छूट जाएंगे । कोई सहज रसिक यह ही तो... --- तृषित ।
सटर डे , सन्डे और वृन्दावन ।
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