इच्छा का विलास - तृषित

*इच्छा का विलास*

किसी बाग को अगर ईमारत या कारखाना बना दिया जावें तो फूलों की सुगन्ध नही आती है ।

हो सकता है । इमारतों कारखानों में तस्वीर लगी हो फूलों की या उपवनों की । परंतु तब भी सुगन्ध नही रहेगी ।

जिनके हृदय में लोकेष्णा (लौकिकी-कामना) है वह इमारत या कारखानें है । और इन के रहते बाग (कुँज) केवल स्वप्न हो सकता ।  लोक में तो बाग-उपवन जीवन को सुगन्ध-सौरभ देता है तब भी वह हटाकर इमारतें या कारखानें बनते है जिनके पीछे कामना है । कामना से ही विचार का सृजन है । वस्तु-विचार से ही इच्छा और आवश्यकता का भेद नही दिखता ।
तो अपने लिये कामनाओं हेतू प्रेम सरलता सहजता उपवन मिटाने वाला वह जीव कैसे वह कुँज सजावे जो श्री बिहारी-बिहारिणी हेतू ही हो । हाँ , श्रीयुगलबिहारी के नित्य-कुँज -निकुँजों को जो कि इच्छाओं से रहित होकर उनकी सुख लालसाओं के फूल लगाने से खिलती है उन्हें कामनाओं के रहते प्रकट नही कर सकते तो ...आज इच्छाओं की इमारतों में ...इन भवनों में लाकर ...हर्षित हो सकते है । श्रीयुगल का आना अर्थात्र् हम निकले नही  निकुँज हेतू । इन भोग-लोक के विषयों को छोड़ते नही बना । हांँ वह अवश्य आते है ...आपकी इच्छाओं की इमारतें कितनी ही चमकती हो परन्तु वस्तुतः जो कुँज-निकुँज में विलास है उसी में बिहारीबिहारिणी का विलास सम्भव है । भीतर की इच्छाओं को आधुनिक भवन-निर्माण से कुँजनिकुँज के फूलों की सेवा तक लाना होगा ...इच्छाओं से ही प्यार है तो इन इच्छाओं को युगलसुख से अभिन्न जीवन देना होगा फिर यह बढती रहेगी और हित वल्लरी ही प्रकट करेगी । *तृषित* । 
। जीव की इच्छा नही छुटती सो उन कामनाओं को रसिकवाणियों में इतना मधुर रख गाया जाता है जिससे जीव को अपनी इच्छा फीकी लगें । आज विलासी जीव दूसरे की थाली में घी देखकर ..माँग करता है । पूरा जीवन नकल भर हो रहा है वही नकल भी  अद्भूत अनुसरण-अनुग्रह में रसिक वाणियों से दिव्य जीवन को छू लेती है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । आज जीव भगवत पथ पर चलने से पूर्व जो पथ के शिखर पर है उनका अवलोकन चाहता है तब कही चलना प्रारंभ करता है । इच्छा में भारी शक्ति है वह जब तक सघन रसिक लालसाओं में रंगकर नही उछलती तब तक प्रपंच फैल रहा होता है । वही इच्छा रसिक आश्रय से सेवालालसा हो जाती है । कोई कह्वे कि प्रेम पथ पर कृपाविलास है तब पृथक् से इस लालसा या लोलुप्ति या इच्छा अथवा तृषा की क्या आवश्यकता है ? कृपा के अनुग्रह और अनुगामी होकर कृपा में भीगे रहने हेतु इच्छा ही प्रभावी है । कृपा तो सरल-सहज और नित्य है परंतु कृपा-अनुभुति में बाधा है तो इच्छा । आप लोक में भिन्न भिन्न स्थिति देखते है भावुकों की ...कृपावर्षा का यह भिन्न और नवीन वितरण इच्छा से है । कृपा से ही सिद्धि होती है परन्तु कृपा की सेवा की इच्छा तो हो । मूल इच्छा कृपा को इष्ट मानती है और कृपा द्वारा ही सर्वरस सुलभता को छू लेती है अर्थात् कृपा से अभिन्न हो जाती है । परन्तु अगर पथ में हुई हानि को कृपा पर कोई गिरावें तो वह कृपा का पूजन नही है । दिव्य-प्राप्तियों को कृपा मानना ही कृपा का आदर है । वर्तमान में अपनी इच्छाहीनता को कृपा पर डालकर खुब कहा जाता है जैसा कि मैं किन्हीं को उत्सव हेतु आमंत्रित करुँ और वह कहें की कृपा नही है अथवा श्रीजी चाही तो ही सम्भव । श्रीजी ना चाहती तो उत्सव ही काहे खिल कर आपको आमंत्रण देता आमंत्रण में अरुचि को कृपा पर नही डालना चाहिये सो यह तृषा या लालसा (इच्छा)अनिवार्य है कृपा सँग । कृपा रूपी वर्षा का अनादर कर हम छतरी बना लेते है और मोर उस वर्षा में नाचता है । वह नृत्य उस कृपावर्षा का आदर इसलिये ही करता है क्योंकि उसने पुकारा(तृषा) इस वर्षण को । तृषाहीन को कृपा सुलभ ही नही होती वह कृपा के विपरित चलकर कृपा को खोजने लगता है । सहज कृपा में डूबने हेतु ही मन्त्र या नाम जीव को दिये जाते है जो सभी इच्छाओं को मिटाकर एक लक्ष्य रख गति प्रदान करते है । मन्त्र का अपनी गति और लालसा होती है वैसे ही रसिक वाणियों की । मन्त्र की अपनी त्राण शक्ति सभी बाह्य इच्छाओं को झार कर आन्तरिक गति देती है । जगत विस्तार बाह्य जितना दृश्य है (अनन्त ब्रह्मांड) भीतर भी उतना सघन और नित्य सघन आह्लाद है । भीतर की अपरिमित-बिन्दु की ओर बढती गति ही मन्त्र है जो जीव के इच्छाविलास को विशुद्ध करने की कृपाशक्ति है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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