भावहानि , तृषित
*भावहानि*
जो भावुक को श्रीप्रियाप्रियतम का ना मान पाते हो उनके सँग से भाव हानि रहती है । जिन्हें पता न हो इस सम्बन्ध का उनसे फिर भी कम होती है परन्तु जिन्हें थोडा पता हो और वह कोई बनावट या अभिनय महसूस कर रहे हो । या संदेह हो उन्हें इस भगवत सम्बंध पर उनके सँग से हानि होती है । हानि का कारण कपट है ...अपना कपट या किसी का भी कपट ।
श्री गुरु जी और वह सहज रसिक जो हमें युगल वस्तु ही माने उनके सँग से भाव स्वतः उनकी मान्यता रूपी कृपा से पुष्ट होता है । अर्थात् भाव श्रद्धा रूपी डिबिया में वास करता है । अश्रद्धालु में श्रद्धा का अभाव होने से भाव रूपी संकोची फूल छिप जाता है । वह भावुक को त्यागता नही है परंतु अपना अनुभव अदृश्य कर लेता है क्योंकि विशाल प्रपंच में उस भाव की उपस्थिति की माँग होती नही है ।
कोशिश यह करनी चाहिये कि सभी के भाव को आदर देते हुये अपने को उनकी कृपा का पात्र माना जावें अर्थात् अतिदैन्यता स्थाई हो जावे । जगत में भगवत सम्बंध का आदर नही है परन्तु जगत् में परस्पर दीनता का दर्शन प्रकट है अर्थात् हर कोई हममें अभाव देख रहा होता है तो उन अभावों को हम स्वीकार कर लें तो दीनता का अनुभव स्थापित होगा जिसमें भाव भीतर कही खेलता रहेगा और अनुभव सँग बाहर केवल अपनी अधमता - शूद्रता-निर्धनता-मलिनता-दीनता- स्थापित अभिव्यक्त रहेगी । हमें भावुक नहीं माना जाता इससे भावहानि होती है तो हमें अगर मलिन माना जाता है तो वह स्वयं को मान लेने पर भाव वल्लरि भीतर खिलती रहती है । क्योंकि दीनता भाव रूपी धन की रक्षा करती है । और यह सुखद संयोग है कि भावुक या भगवत वस्तु भले कोई हमें ना मानें । परन्तु हमारी मलिनता सबको अनुभव हो रही होती है सो हमें मानना है कि इन्हें हममें से कोई दुर्गंध आ रही है तो वह हममें भरी ही है । अपनी मलिनता की पीडा से भाव रक्षा रहेगी । और सत्य मानिये लोक में व्यापक मलिनता का दर्शन है अर्थात् मैं मलिन हूं या दीन हूं ...यह अभ्यास की जरूरत नही है ! भले मैं ना मानूं इसे पर विधान कृपा कर रहा है और सभी अनन्त मलिनता मुझमें देख रहे है तो अहा अपनी दृष्टिहीनता होने पर भी हमारा मैल अगर किन्हीं को अनुभव है तो हमें वह मैल धोने की पीडा हो । और यकीन मानिये विधान कृपा कर के जीवन भर हमें अपने मैल की धुलाई में रखेगा जिससे भावहानि भावरक्षा हो जावेगी । दर्शन हेतू स्वयं की स्थिति चाहिये होती है केवल भगवत पार्षद या प्रकट रसिक ही किसी भी प्राणी को भगवदीय वस्तु या सेवा -श्रृंगार स्वीकार करते है क्योंकि वह स्वयं उस स्थिति में है सो व्यापक श्रृंगार विलास लीला ही अनुभव होती है ना कि मायिक-प्रपंच । अब ऐसे रसिकन का क्षणार्द्ध सँग हो तब वहाँ झरते नयनकोर (दर्शन) अपने नयनों में काजल की भाँति भर जावें । वही व्यापक श्रृन्गार उल्लास -लीला सेवा सर्वत्र दिखाई दे तो भावहानि न होगी (यह स्थिति सघन रसिक सँग और नित्य भजन से बनती है) सर्वत्र व्यापक दिव्य-भगवत लीला और अपनी मलिनता ...अहा ! रसिकन की दृष्टि चुरा कर व्यापक परिमंडल को भगवदीय मानना और लोक दृष्टि कृपा से स्वयं में मलिनता पाना । फिर भीतर सहज भाव स्थिर रह सकेगा ... भले आपको कोई भगवदीय ना माने परंतु आप किसी कीट को ही दो पल भगवदीय मानकर देखें हृदय उल्लसित हो जावेगा ।
फिर दिव्य भगवदीय सखीजन (सेवा-श्रृंगार या पार्षद) ही जीवन में भरी हो तो उनके भीतर से झरती मान्यता (सखी को सखी ही दिखती है ...और सेवा तो सेवा में ही वास करती है तथा श्रृंगार नित्य श्रृंगार ही छूता है) कि हम युगल वस्तु ही है ...अहा दुर्लभ यह सहज सँग । तृषित । सँग का ही रँग चढता है जी ...बोलिए फिर-फिर जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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