अंतरँगता तृषित

*अंतरँगता*

बौद्धिक संसृति से आगे ...
सत्य नित्य गम्भीर है और असत्य गंभीरता का नित्य स्वांग नहीं कर सकता । अपितु सत्य नित्य संकोची भी रहता है ।
संकोच सत्य का वह स्वरूप है,  जिसे सभी तलाश रहे होते है क्योंकि हमारा जीवन अन्तरंगताओं से भरा है ...यहीं अंतर्निहित अंतरंगता हम प्रकट करने हेतू विश्व व्यापार में खोज रहे होते है किसी ऐसे अन्तर्मुखी को जो हमारा हृदय पढ लें । अंतरँगताओं से भारी होता हमारा हृदय एक काल में दो मुर्ति खोज रहा होता है एक श्रीगुरूमुर्ति और एक आत्मप्राण प्रियतम । वस्तुतः सत्य सब आध्यात्मिक जानते ही है कि दोनों स्थिति एक ही है गुरू ही अप्रकट श्रीहरि और श्रीहरि ही गुणावतार हेतू श्रीगुरू रूप ।
आज जीवन की विषमताओं में हमारी कोई ऐसी बातें भीतर है जो हम किसी से कह नही सकते और बिना कहे रह नही सकते है और आसपास ऐसा कोई होता नही जिसे सब कहा जा सकें सो वहीं  निज अंतरँगता अपना स्वाद तलाश रही होती है ।
यह अंतरँगता ऐसा विषय रहा है जिस पर बात कर इसका समाधान ना निकाल सभी ओर इनका अनादर खेल होता रहा है अथवा अंतरँगतम होने हेतू आभामण्डल भरा एक ओजस्वी दिव्य आकर्षण स्फुरित किया जाता रहा है । कोई फूल अपनी सुगन्ध ना दें तो हम लें नही सकते और ना ही हमें सभी फूल प्रजातियों से सुगन्ध पीना आता है ...जब  कोई फूल सुगन्ध उछालता है तब ही वह सुगन्ध घ्राणेन्द्रिय गृहण करती है ।
यह बात वर्तमान आध्यात्मिक आस्था को पुष्ट रखने हेतू पूर्ण पढियेगा वरण हमारे दो कदम धर्म या पथ की ओर बढते है तो वातावरण में घुली अश्रद्धा से  भयभीत होकर हम चार कदम पीछे भी हो जाते है ।
यही चेतना का वह लज्जा श्रृंगार गौण होने लगता है । अपने हृदय की उस बात को जो अकथनीय है उसे फूल की तरह स्पर्शित करने पर हमारी लज्जा सम्पूर्ण श्रृंगार बनी होती है हमारा (भावचेतना का) और चेतना की उस लज्जा को कोई अनुभव करें और वह भी हमारी अकथनीय अंतरँगताओं को छूने लगें तब वहाँ लगता है निज धरातल जैसे मिलने लगा हो । वर्तमान में आध्यात्मिकता के व्यापारी इन सभी बातों को शाब्दिक नही कह सकते परन्तु वह इन खेलों में माहिर है । उन्हें अखिलं मधुरं का अभिनय पर  बाह्य धमनियों नृत्य करना आता है । यहाँ भीतरी सत्य कभी जीव होते हुये दामिनी भाँति चंचल नहीं होता है वह तो गम्भीरतम प्रालापों में प्रथम रूदन को स्वयं में तलाश भर रहा होता है । अर्थात् जीव की वास्तविकता है उसकी श्रीहरिदास्यता का अनुभव उसे हो जावें । सो हरिदास्यता में बाह्य अभिनय की इच्छा कुछ कम हो जाती है अपेक्षाकृत आध्यात्म के अन्य मार्गों से । और वर्तमान में जो मार्ग प्राच्य रीति मार्गों की ईश्वरवादिता जैसे स्वरूप-स्वभाव पूजन ना मानें है उनके लिये थोडा  और संघर्ष बढता है कि भीतर उतरते ब्रह्मत्व को अंतरँग रखना । अथवा प्रकट होने पर समग्र कोमल्य उछालना जैसे कि बुद्ध । पक्षपात भरा ब्रह्मलीन अनुभव होना थोडा कठिन ही है परन्तु जीव की अंतरँगताओं की सुगन्ध से वर्तमान में आध्यात्म यह घटना अनुभव करता है ।
वस्तुतः वह ब्रह्म-अनुभवी या नित्य-हरिदास स्थिति समग्र स्वाद में है तो वह किन्हीं की अंतरँगतायें कही जाने पर भी छूई नही जावेगी । अर्थात् पथिकों के रहस्य वास्तविक सिद्ध आस्वादन नही मान कर उन्हें ठीक वैसे ही जला देते है जैसे सर्द रात्रि में कचरा खोज खोज कर कोई पथिक जला कर तप रहा हो ।
प्राप्त वैष्णव आदि रीति-भजन में मन देने पर सिद्ध या साधक का इन विषयों में ध्यान नहीं रहता है । परन्तु तेजोमय स्वयं ईश्वर होने के अनुभव में भरी स्थिति निज ब्रह्मलीनता को व्यापार अनुभव ज्यों ही क्षणार्ध भी करेगी तब ही आकर्षण- सम्मोहन में भर कर  प्राणी प्राणी ऐसे फिरेंगे जैसे सुर्य सँग किरणों में दृश्य होते आकर्षित नृत्यमय अनन्त कण । वास्तविक समग्र चैतन्यता तो नितांत अभिनय से परे समग्र तृषा भरी पुकार ही है ...निज अंतरँग प्राण स्वरूप-स्वभाव श्रीहरि हेतू उठी । वह सघन नामोच्चार तृषा ही व्यापक अंतरँगता है सो प्राणीमात्र सहज आकर्षित-कर्षित है (खींचे चले आये है) ।
अंतरँगता भीतर कहाँ  नही है और उस अंतरँगता को छूने की कोशिश भी कहा नही होती । परन्तु विवेक यही है कि वह वस्तुतः विशुद्ध अंतरँगता है तो केवल श्रीकृष्ण उसे छूएंगे । वरण कभी एकान्त पाकर एक भोले भावुक ने कह ही दी थी मुझसे अपनी अंतरँगता कि बकरी दूध ना दे रही जी । ...सबको अपनी अंतरँगता सघन लगती है परन्तु है निरा-व्यर्थ ही वह इनकी अंतरँगता सम ।  हांँ सम्भव है कुछ प्रेमियों में हो श्रीप्रियतम या श्रीगुरू चरणों हेतू कोई सघन अंतरँगता । जिसमें जीवन से अप्रकट जीवन की सुगन्ध छिपी हुई हो । हमें वैष्णवता का लाभ है कि हम श्रीहरि से निज अंतरँगता कह लेते है या उनके रस में भरे  समभाव-रसिक सँग में । 
आपके हृदय में कोई बात है जिसे किन्हीं को कहना है तो प्रथम तो उस बात को स्वयं से पूछिये । स्वयं मे उत्तर ना मिलें तो श्रीहरि-भावित रसिक सन्त से । परन्तु श्रीगुरू सँग एक मर्यादा सम्बन्ध है जो कि आदर सँग सघन होता है और श्रीहरि-वत उनसे अंतरँगता की तुष्टि चाहने हेतू स्थिति लोकोत्तर होनी चाहिये ...मध्य में लौकिक द्वन्द ना हो ।
इन अंतरँग माँगों ने हमारी आध्यात्मिक हानि बहुत की है । वैसे तो हम परस्पर आलोचना करते ही है परस्पर असिद्धताओं में ,  परन्तु जैसे किसी एक प्राप्ति से समग्र लाभ है ...वैसे ही एक की हानि से समग्र हानि भी है ।
कुछ प्रयोग निवेदन है यहाँ अंतरंगताओं हेतू एकान्तिक होकर एक दीपक जलावें ...कुछ देर उसे प्राणप्रियतम वत निहार कर कागज पर अंतरँग बात दीपक को निहारते हुये लिखें और मुस्कुराते हुये वह अंतरँगता उस दीपक को निवेदन कर दे अर्थात् आहुत कर दें । अति महत्वपूर्ण अंतरँगता भी विश्वास से यह प्रयोग करने पर स्वयं के भीतर ही उत्तर बनी होगी ।
दूसरा प्रयोग आप मोबाईल पर लिख कर स्वयं पढ लें और मिटा दें । जिससे भीतर उठती अभिव्यक्ति को जीवन मिलेगा और इन प्रयोगों सँग स्थिरता आवेगी ।
जल मे भी लिख कर प्रवाहित कर सकते अंतरँगता परन्तु कागज गला नही तो अन्य को वह कोई पागलपन ना लगें ।
वास्तविक अंतरँगता कोई उत्तर नहीं चाहती अपितु अवलम्बन चाहती है । शरणागति । जो अंतरँगता पियरँग से ज्यादा स्वयं के रंगो को दे वह आहुत ही हो जानी चाहिये ...वरण अंतरँगता तो पियरँग में ही लौटना चाह्वेगी । अंतरँगता प्रकट करने और मर्यादा में लज्जावत रहने में हमें सम्पूर्ण प्रयास लज्जा के श्रृंगार हेतू हिय की भाषा हिय से ही समझनी होगी । ...वस्तुतः अंतरँग नवीन रहस्यों से पथ सघनताओं सँग भरे हुये है सो इन्हें सघन होने हेतू एकान्तिक जीवन में जीवनवत सँग रखना होगा । रसिक हृदय की अंतरँगप्रीति हृदय में भरी हो यह वाँछा करने हेतू रिक्त होना होगा । स्वयं सत्य आपकी अंतरँगता को कभी छुवेगा तो वह दिव्य प्रसादवत ही शेष रहेगी अथवा प्रेमाहुत होगी । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय