निवृत्ति तृषित

*निवृत्ति*

निवृति प्रकट ही प्रवृति की पूर्णता पर ही होती है

प्रवृति को निवृति सम रखना चाहिये

...और निवृत्ति होने पर स्वप्न में भी प्रवृति नही होनी चाहिये

जब तक जागृत-स्वप्न-सुक्षुप्ति में एकाग्र अनन्य स्थिति नही है अपनी प्रवृति ही समझनी चाहिये और भजन सदाचार से उसे शुद्ध रखना चाहिये

जब तक जीवन में सेवाएं शेष है प्रवृति ही है
जब जीवन में केवल रस स्थिर हो जावें और अन्यत्र चेतना या मन का ना ही गमन हो और ना ही उसे अन्य चिन्तन की आवश्यकता हो... तब ही निवृत्ति माननी चाहिये

वानर भी केला पूरा खाकर ही छिलका फेंकता है । (जीवन रस का पूर्ण वितरण)
और आवश्यक रस हीन छिलके का सँग वानर भी नहीं करता है । अर्थात् यहाँ रस(अर्थ) का सँग है ।
और जब तक रस है उसे मुक्त किया नही जाता है ।
इसके हेतू ऐसे फल को सघन वन में सर्वता से दुर्लभ होना होगा और केवल निज भावधरा को सुगन्धित रखने हेतू जीवन रखना होगा ।

हमारे भीतर कोई माँग शेष ना हो और ...ना ही हमारी ही माँग बाह्य शेष हो जब तक हमारी माँग शेष है अर्थात् तब तक हमारी किसी अन्य को आवश्यकता शेष है तब तक विशुद्ध निवृत्ति हुई नही है । क्योंकि सेवा शेष है ।

स्वयं में हम लोकार्थ कोई अर्थ ना रखेंगे तो लोक भी अर्थहीन का सँग नही रखेगा वह स्थिति विरक्ति है । लोक से हमारा अर्थ बना रहना ही प्रवृति है ...

विधान तो सभी को प्रवृति से निश्चित ही निवृत्ति पर लें जा रहा है  ।  कुछ जीवन रहते इच्छाओं से निवृत्त हो जाते है और कुछ मरणोपरांत भी शेष इच्छाओ में जीवन खोज रहे होते है अर्थात् प्रवृति विशुद्ध होकर स्वभाविक गलित होती ही जाती है । और अभिनय रूपी निवृत्ति कहीं न कहीं प्रवृत्ति ही है ।
यहाँ जीवन परिवर्तन हृदय में घटित होता है ना कि बाह्य परिवेश भर में ...

दोनों ही धर्म के दो पहलूं है जिनका क्रमिक पालन अनिवार्य ही है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । यह विषय कुछ संकेत रूप साधक में साधुता भाग 20 में आपने सुना ही होगा ।

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